राजपूत वंशावली


राजपूतों की वंशावली


"दस रवि से दस चन्द्र से बारह ऋषिज प्रमाण, 
चार हुतासन सों भये कुल छत्तिस वंश प्रमाण 
भौमवंश से धाकरे टांक नाग उनमान 
चौहानी चौबीस बंटि कुल बासठ वंश प्रमाण."

अर्थ:-दस सूर्य वंशीय क्षत्रिय दस चन्द्र वंशीय,बारह ऋषि वंशी एवं चार अग्नि वंशीय कुल छत्तिस क्षत्रिय वंशों का प्रमाण है,बाद में भौमवंश नागवंश क्षत्रियों को सामने करने के बाद जब चौहान वंश चौबीस अलग अलग वंशों में जाने लगा तब क्षत्रियों के बासठ अंशों का पमाण मिलता है।

सूर्य वंश की दस शाखायें:-
१. कछवाह
२. राठौड 
३. बडगूजर
४. सिकरवार
५. सिसोदिया 
६.गहलोत 
७.गौर 
८.गहलबार 
९.रेकबार 
१०.जुनने

चन्द्र वंश की दस शाखायें:-
१.जादौन 
२.चन्दे
३.तोमर 
४.भाटी 
५.वैस
६.होंड 
७.पुण्डीर 
८.कटैरिया 
९.स्वांगवंश 
१०.छोंकर

अग्निवंश की चार शाखायें:-
१.चौहान 
२.सोलंकी 
३.परिहार 
४.पमार.

ऋषिवंश की बारह शाखायें:-
१.सेंगर 
२.दीक्षित 
३.दायमा 
४.गौतम 
५.अनवार (राजा जनक के वंशज) 
६.विसेन 
७.करछुल 
८.हय 
९.अबकू तबकू 
१०.कठोक्स 
११.द्लेला 
१२.बुन्देला

चौहान वंश की चौबीस शाखायें:-
१.हाडा 
२.खींची 
३.सोनीगारा 
४.पाविया 
५.पुरबिया 
६.संचौरा 
७.मेलवाल
८.भदौरिया 
९.निर्वाण 
१०.मलानी 
११.धुरा 
१२.मडरेवा 
१३.सनीखेची 
१४.वारेछा 
१५.पसेरिया 
१६.बालेछा 
१७.रूसिया 
१८.चांदा
१९.निकूम 
२०.भावर 
२१.छछेरिया 
२२.उजवानिया 
२३.देवडा 
२४.बनकर.


चौहान वंश  वंशावली
ब्रम्हाजी से लेकर पृथ्वीराज चौहान तक की वंशावली

वर्तमान इतिहासकारों ने इतिहास को 2000 से 4000 वर्षो में समेट लिया है विदेशी इतिहासकार अगर ये कार्य करे तो समझा जा सकता है की इसाई सम्प्रदाय की उत्पत्ति 2000 वर्ष पूर्व हुई और यहूदियो की 4500 वर्ष पूर्व अतः इससे पहले का इतिहास उन्हें नहीं ज्ञात है .. पर हमारे देश के इतिहासकार अगर ऐसा करे तो समझ से परे है जबकि हमारे पास रामायण महाभारत और पुराणों जैसे अनेकों एतिहासिक ग्रन्थ है जिनकी घटनाएं सत्य प्रमाणित भी होती जा रही है.. वैसे प्रमाणों की आवश्यकता सिर्फ भारतीयों को क्यूँ होती है विदेशियों के कथनों और ग्रंथो को हम बिना जांचे परखे क्यों सच मान लेते है..!
इस पोस्ट में हम आपको बता रहे है कई एतिहासिक ग्रंथो से जुटाई ऐसी जानकारी जिसके बाद हमें अपने अतीत में झाँकने में आसानी होगी.. हम जानते हैं कि सारी सृष्टी परमपिता ब्रम्हा से उत्पन्न हुई है लेकिन अब जानते है उनकी पूरी वंशावली..

1. परमपिता ब्रम्हा से प्रजापति दक्ष हुए.
2. दक्ष से अदिति हुए.
3. अदिति से बिस्ववान हुए.
4. बिस्ववान से मनु हुए जिनके नाम से हम लोग मानव कहलाते हैं.
5. मनु से इला हुए.
6. इला से पुरुरवा हुए जिन्होंने उर्वशी से विवाह किया.
7. पुरुरवा से आयु हुए.
8. आयु से नहुष हुए जो इन्द्र के पद पर भी आसीन हुए परन्तु सप्तर्षियों के श्राप के कारण पदच्युत हुए.
9. नहुष के बड़े पुत्र यति थे जो सन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए. ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले. ययाति के पांच पुत्र थे. देवयानी से यदु और तर्वासु तथा शर्मिष्ठा से दृहू, अनु, एवं पुरु. यदु से यादवों का यदुकुल चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया. तर्वासु से मलेछ, दृहू से भोज तथा पुरु से सबसे प्रतापी पुरुवंश चला. अनु का वंश ज्यादा नहीं चला.

10. पुरु के कौशल्या से जन्मेजय हुए.
11. जन्मेजय के अनंता से प्रचिंवान हुए.
12. प्रचिंवान के अश्म्की से संयाति हुए.
13. संयाति के वारंगी से अहंयाति हुए.
14. अहंयाति के भानुमती से सार्वभौम हुए.
15. सार्वभौम के सुनंदा से जयत्सेन हुए.
16. जयत्सेन के सुश्रवा से अवाचीन हुए.
17. अवाचीन के मर्यादा से अरिह हुए.
18. अरिह के खल्वंगी से महाभौम हुए.
19. महाभौम के शुयशा से अनुतनायी हुए.
20. अनुतनायी के कामा से अक्रोधन हुए.
21. अक्रोधन के कराम्भा से देवातिथि हुए.
22. देवातिथि के मर्यादा से अरिह हुए.
23. अरिह के सुदेवा से ऋक्ष हुए.
24. ऋक्ष के ज्वाला से मतिनार हुए.
25. मतिनार के सरस्वती से तंसु हुए.
26. तंसु के कालिंदी से इलिन हुए.
27. इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए.
28. दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए जिनके नाम पर हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है.

29. भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए.
30. भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए.
31. सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए जिनके नाम पर पूरे प्रदेश का नाम हस्तिनापुर पड़ा.
32. हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए.
33. विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए.
34. अजमीढ़ से संवरण हुए.
35. संवरण के तपती से कुरु हुए जिनके नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया.
36. कुरु के शुभांगी से विदुरथ हुए.
37. विदुरथ के संप्रिया से अनाश्वा हुए.
38. अनाश्वा के अमृता से परीक्षित हुए.
39. परीक्षित के सुयशा से भीमसेन हुए.
40. भीमसेन के कुमारी से प्रतिश्रावा हुए.
41. प्रतिश्रावा से प्रतीप हुए.
42. प्रतीप के सुनंदा से तीन पुत्र देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु का जन्म हुआ. देवापि किशोरावस्था में ही सन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ने में लग गए इसलिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली. शांतनु से भीष्म हुए जिनकी कहानी और वंशावली विचित्र है ..

43. शांतनु कि गंगा से देवव्रत हुए जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए. भीष्म का वंश आगे नहीं बढा क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रम्हचारी रहने की प्रतिज्ञा कि थी. शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए. चित्रांगद की मृत्यु युवावस्था में ही हो गयी. विचित्रवीर्य कि दो रानियाँ थी, अम्बिका और अम्बालिका. विचिचित्रवीर्य भी संतान प्राप्ति के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए, लेकिन महर्षि व्यास कि कृपा से उनका वंश आगे चला.
44. विचित्रवीर्य के महर्षि व्यास की कृपा से अम्बिका से ध्रतराष्ट्र, अम्बालिका से पांडू तथा अम्बिका की दासी से विदुर का जन्म हुआ.
45. ध्रितराष्ट्र से दुर्योधन, दुहशासन, इत्यादि 100 पुत्र एवं दुशाला नमक पुत्री हुए. इनकी एक वैश्य कन्या से युयुत्सु नामक पुत्र भी हुआ जो दुर्योधन से छोटा और दुशासन से बड़ा था. इतने पुत्रों के बाद भी इनका वंश आगे नहीं चला क्योंकि इनके समूल वंश का नाश महाभारत के युद्घ में हो गया. किन्दम ऋषि के श्राप के कारण पांडू संतान उत्पत्ति में असमर्थ थे. उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को दुर्वासा ऋषि के मंत्र से संतान उत्पत्ति की आज्ञा दी. कुंती के धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और इन्द्रदेव से अर्जुन हुए तथा माद्री के अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव का जन्म हुआ. इन पांचो के जन्म में एक एक साल का अंतर था. जिस दिन भीम का जन्म हुआ उसी दिन दुर्योधन का भी जन्म हुआ.
46. युधिष्ठिर के द्रौपदी से प्रतिविन्ध्य एवं देविका से यौधेय हुए. भीम के द्रौपदी से सुतसोम, जलन्धरा से सवर्ग तथा हिडिम्बा से घतोत्कच हुआ. घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक हुआ. नकुल के द्रौपदी से शतानीक एवं करेनुमती से निरमित्र हुए. सह्देव के द्रौपदी से श्रुतकर्मा तथा विजया से सुहोत्र हुए. इन चारो भाइयों के वंश नहीं चले. अर्जुन के द्रौपदी से श्रुतकीर्ति, सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इलावान, तथा चित्रांगदा से बभ्रुवाहन हुए. इनमे से केवल अभिमन्यु का वंश आगे चला.

47. अभिमन्यु के उत्तरा से परीक्षित हुए. इन्हें ऋषि के श्रापवश तक्षक ने कटा और ये मृत्यु को प्राप्त हुए.
48. परीक्षित से जन्मेजय हुए. इन्होने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया जिसमे सर्पों के कई जातियां समाप्त हो गयी, लेकिन तक्षक जीवित बच गया.
49. जन्मेजय से शतानीक तथा शंकुकर्ण हुए.
50. शतानीक से अश्वामेघ्दत्त हुए.
महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया

युधिष्ठिर : 36 वर्ष
परीक्षित: 60 वर्ष
जनमेजय: 84 वर्ष
अश्वमेध : 82 वर्ष
द्वैतीयरम : 88 वर्ष
क्षत्रमाल : 81 वर्ष
चित्ररथ : 75 वर्ष
दुष्टशैल्य : 75वर्ष
उग्रसेन : 78 वर्ष
शूरसेन : 78 वर्ष
भुवनपति : 61 वर्ष
रणजीत : 65 वर्ष
श्रक्षक : 64 वर्ष
सुखदेव : 62 वर्ष
नरहरिदेव : 51 वर्ष
शुचिरथ : 42 वर्ष
शूरसेन द्वितीय : 58 वर्ष
पर्वतसेन : 55 वर्ष
मेधावी : 52 वर्ष
सोनचीर : 50 वर्ष
भीमदेव : 47 वर्ष
नरहिरदेव द्वितीय : 47 वर्ष
पूरनमाल : 44 वर्ष
कर्दवी : 44 वर्ष
अलामामिक : 50 वर्ष
उदयपाल : 38 वर्ष
दुवानमल : 40 वर्ष
दामात : 32 वर्ष
भीमपाल : 58 वर्ष
क्षेमक : 48 वर्ष

क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया

विश्व : 17 वर्ष
पुरसेनी : 42 वर्ष
वीरसेनी : 52 वर्ष
अंगशायी : 47 वर्ष
हरिजित : 35 वर्ष
परमसेनी : 44 वर्ष
सुखपाताल : 30 वर्ष
काद्रुत : 42 वर्ष
सज्ज : 32 वर्ष
आम्रचूड़ : 27 वर्ष
अमिपाल : 22 वर्ष
दशरथ : 25 वर्ष
वीरसाल: 31 वर्ष
वीरसालसेन: 47 वर्ष
वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक राज्य किया

वीरमाह: 35 वर्ष
अजितसिंह: 27 वर्ष
सर्वदत्त: 28 वर्ष
भुवनपति: 15 वर्ष
वीरसेन: 21 वर्ष
महिपाल: 40 वर्ष
शत्रुशाल: 26 वर्ष
संघराज: 17 वर्ष
तेजपाल: 28 वर्ष
मानिकचंद: 37 वर्ष
कामसेनी: 42 वर्ष
शत्रुमर्दन: 8 वर्ष
जीवनलोक: 28 वर्ष
हरिराव: 26 वर्ष
वीरसेन द्वितीय: 35 वर्ष
आदित्यकेतु: 23 वर्ष
प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया

वीरमाह: 35 वर्ष
अजितसिंह: 27 वर्ष
सर्वदत्त: 28 वर्ष
भुवनपति: 15 वर्ष
वीरसेन: 21 वर्ष
महिपाल: 40 वर्ष
शत्रुशाल: 26 वर्ष
संघराज: 17 वर्ष
तेजपाल: 28 वर्ष
मानिकचंद: 37 वर्ष
कामसेनी: 42 वर्ष
शत्रुमर्दन: 8 वर्ष
जीवनलोक: 28 वर्ष
हरिराव: 26 वर्ष
वीरसेन द्वितीय: 35 वर्ष
आदित्यकेतु: 23 वर्ष
प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया

धनधर : 23 वर्ष
महर्षि : 41 वर्ष
संरछि : 50 वर्ष
महायुध: 30 वर्ष
दुर्नाथ: 28 वर्ष
जीवनराज: 45 वर्ष
रुद्रसेन: 47 वर्ष
आरिलक: 52 वर्ष
राजपाल: 36 वर्ष
सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया। अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया

समुद्रपाल: 54 वर्ष
चन्द्रपाल: 36 वर्ष
सहपाल: 11 वर्ष
देवपाल: 27 वर्ष
नरसिंहपाल: 18 वर्ष
सामपाल: 27 वर्ष
रघुपाल: 22 वर्ष
गोविन्दपाल: 27 वर्ष
अमृतपाल: 36 वर्ष
बालिपाल: 12 वर्ष
महिपाल: 13 वर्ष
हरिपाल: 14 वर्ष
सीसपाल: 11 वर्ष (कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।)
मदनपाल: 17 वर्ष
कर्मपाल: 16 वर्ष
विक्रमपाल: 24 वर्ष
विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया

मालकचन्द: 54 वर्ष
विक्रमचन्द: 12 वर्ष
मानकचन्द: 10 वर्ष
रामचन्द: 13 वर्ष
हरिचंद:14 वर्ष
कल्याणचन्द: 10 वर्ष
भीमचन्द: 16 वर्ष
लोवचन्द: 26 वर्ष
गोविन्दचन्द: 31 वर्ष
रानी पद्मावती: 1 वर्ष

रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी 4 पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

हरिप्रेम: 7 वर्ष
गोविन्दप्रेम: 20 वर्ष
गोपालप्रेम : 15 वर्ष
महाबाहु: 6 वर्ष
महाबाहु ने सन्यास ले लिया। इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया

अधिसेन: 18 वर्ष
विल्वसेन: 12 वर्ष
केशवसेन: 15 वर्ष
माधवसेन: 12 वर्ष
मयूरसेन: 20 वर्ष
भीमसेन: 5 वर्ष
कल्याणसेन: 4 वर्ष
हरिसेन: 12 वर्ष
क्षेमसेन: 8 वर्ष
नारायणसेन: 2 वर्ष
लक्ष्मीसेन: 26 वर्ष
दामोदरसेन: 11 वर्ष
दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

दीपसिंह: 17 वर्ष
राजसिंह: 14 वर्ष
रणसिंह: 9 वर्ष
नरसिंह: 45 वर्ष
हरिसिंह: 13 वर्ष
जीवनसिंह: 8 वर्ष
पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है

पृथ्वीराज: 12 वर्ष
अभयपाल: 14 वर्ष
दुर्जनपाल: 11 वर्ष
उदयपाल: 11 वर्ष
यशपाल: 36 वर्ष
विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।

राठौड़ वंश की खापें

1. इडरिया राठौड़
2. हटुण्डिया राठौड़
3. बाढेल (बाढेर) राठौड़ 
4. बाजी राठौड़
5. खेड़ेचा राठौड़
6. धुहडि़या राठौड़
7. धांधल राठौड़
8. चाचक राठौड़
9. हरखावत राठौड़
10. जोलू राठौड़
11. सिंघल राठौड़
12. उहड़ राठौड़
13. मूलू राठौड़
14. बरजोर राठौड़
15. जोरावत राठौड़
16. रैकवार राठौड़
17. बागडि़या राठौड़
18. छप्पनिया राठौड़
19. आसल राठौड़
20. खोपसा राठौड़
21. सिरवी राठौड़
22. पीथड़ राठौड़
23. कोटेचा राठौड़
24. बहड़ राठौड़
25. ऊनड़ राठौड़
26. फिटक राठौड़
27. सुण्डा राठौड़
28. महीपालोत राठौड़
29. शिवराजोत राठौड़
30. डांगी राठौड़
31. मोहणोत राठौड़
32. मापावत राठौड़
33. लूका राठौड़
34. राजक राठौड़
35. विक्रमायत राठौड़
36. भोवोत राठौड़
37. बांदर राठौड़
38. ऊडा राठौड़
39. खोखर राठौड़
40. सिंहमकलोत राठौड़
41. बीठवासा राठौड़
42. सलखावत राठौड़
43. जैतमालोत राठौड़
44. जुजाणिया राठौड़
45. राड़धड़ा राठौड़
46. महेचा राठौड़ (महेचा राठौड़ की चार उप शाखाएँ है।)
47. पोकरण राठौड़
48. बाडमेरा राठौड़
49. कोटडि़या राठौड़
50. खाबडिया राठौड़
51. गोगादेव राठौड़
52. देवराजोत राठौड़
53. चाड़ देवोत राठौड़
54. जैसिंधवे राठौड़
55. सातावत राठौड़
56. भीमावत राठौड़
57. अरड़कमलोत राठौड़
58. रणधीरोत राठौड़
59. अर्जुनोत राठौड़
60. कानावत राठौड़
61. पूनावत राठौड़
62. जैतावत राठौड़ (जैतावत राठौड़ की तीन उप शाखाएँ है।)
63. कालावत राठौड़
64. भादावत राठौड़
65. कूँपावत राठौड़ (कूँपावत राठौड़ की 7 उप शाखाएँ है।)

66. बीदावत राठौड़ ( बीदावत राठौड़ की 22 उप शाखाएँ है।)

67. उदावत राठौड़
68. बनीरोत राठौड़ (बनीरोत राठौड़ की 11 उप शाखाएँ है।)

69. कांधल राठौड़ ( कांधल राठौड़ की चार उप शाखाएँ है।)
70. चांपावत राठौड़ (चांपावत राठौड़ की 15 उप शाखाएँ है।)

71. मण्डलावत राठौड़ (मण्डलावत राठौड़ की 13 उप शाखाएँ है।)
72. मेड़तिया राठौड़ (मेड़तिया राठौड़ की 26 उप शाखाएँ है।)
73. जौधा राठौड़ (जौधा राठौड़ की 45 उप शाखाएँ है।)
74. बीका राठौड़ (बीका राठौड़ की 26 उप शाखाएँ है।)

महेचा राठौड़ की चार उप शाखाएँ

1. पातावत महेचा
2. कालावत महेचा
3. दूदावत महेचा
4. उगा महेचा

जैतावत राठौड़ की तीन उप शाखाएँ

1. पिरथी राजोत जैतावत
2. आसकरनोत जैतावत
3. भोपतोत जैतावत

कूँपावत राठौड़ की 7 उप शाखाएँ

1. महेशदासोत कूंपावत
2. ईश्वरदासोत कूंपावत
3. माणण्डणोत कूंपावत
4. जोध सिंगोत कूंपावत
5. महासिंगोत कूंपावत
6. उदयसिंगोत कूंपावत
7. तिलोक सिंगोत कूंपावत

बीदावत राठौड़ की 22 उप शाखाएँ

1. केशवदासोत बीदावत
2. सावलदासोत बीदावत
3. धनावत बीदावत
4. सीहावत बीदावत
5. दयालदासोत बीदावत
6. घेनावत बीदावत
7. मदनावत बीदावत
8. खंगारोत बीदावत
9. हरावत बीदावत
10. भीवराजोत बीदावत
11. बैरसलोत बीदावत
12. डँूगरसिंगोत बीदावत
13. भोजराज बीदावत
14. रासावत बीदावत
15. उदयकरणोत बीदावत
16. जालपदासोत बीदावत
17. किशनावत बीदावत
18. रामदासोत बीदावत
19. गोपाल दासोत
20. पृथ्वीराजोत बीदावत
21. मनोहरदासोत बीदावत
22. तेजसिंहोत बीदावत

बनीरोत राठौड़ की 11 उप शाखाएँ

1. मेघराजोत बनीरोत
2. मेकरणोत बनीरोत
3. अचलदासोत बनीरोत
4. सूरजसिंहोत बनीरोत
5. जयमलोत बनीरोत
6. प्रतापसिंहोत बनीरोत
7. भोजरोत बनीरोत
8. चत्र सालोत बनीरोत
9. नथमलोत बनीरोत
10. धीरसिंगोत बनीरोत
11. हरिसिंगोत बनीरोत

कांधल राठौड़ की चार उप शाखाएँ

1. रावरोत कांधल
2. सांइदासोत कांधल
3. पूर्णमलोत कांधल
4. परवतोत कांधल

चांपावत राठौड़ की 15 उप शाखाएँ

1. संगतसिंहोत चांपावत
2. रामसिंहोत चांपावत
3. जगमलोत चांपावत
4. गोयन्द दासोत चांपावत
5. केसोदासोत चांपावत
6. रायसिंहोत चांपावत
7. रायमलोत चांपावत
8. विठलदासोत चांपावत
9. बलोत चांपावत
10. हरभाणोत चांपावत
11. भोपतोत चांपावत
12. खेत सिंहोत चांपावत
13. हरिदासोत चांपावत
14. आईदानोत चांपावत
15. किणाल दासोत चांपावत

मण्डलावत राठौड़ की 13 उप शाखाएँ

1. भाखरोत बाला राठौड़
2. पाताजी राठौड़
3. रूपावत राठौड़
4. करणोत राठौड़
5. माण्डणोत राठौड़
6. नाथोत राठौड़
7. सांडावत राठौड़
8. बेरावत राठौड़
9. अड़वाल राठौड़
10. खेतसिंहोत राठौड़
11. लाखावत राठौड़
12. डूंगरोत राठौड़
13. भोजराजोत राठौड़

मेड़तिया राठौड़ की 26 उप शाखाएँ

1. जयमलोत मेड़तिया
2. सुरतानोत मेड़तिया
3. केशव दासोत मेड़तिया
4. अखैसिंहोत मेड़तिया
5. अमरसिंहोत मेड़तिया
6. गोयन्ददासोत मेड़तिया
7. रघुनाथ सिंहोत मेड़तिया
8. श्यामसिंहोत मेड़तिया
9. माधोसिंहोत मेड़तिया
10. कल्याण दासोत मेड़तिया
11. बिशन दासोत मेड़तिया
12. रामदासोत मेड़तिया
13. बिठलदासोत मेड़तिया
14. मुकन्द दासोत मेड़तिया
15. नारायण दासोत मेड़तिया
16. द्वारकादासोत मेड़तिया
17. हरिदासोत मेड़तिया
18. शार्दूलोत मेड़तिया
19. अनोतसिंहोत मेड़तिया
20. ईशर दासोत मेड़तिया
21. जगमलोत मेड़तिया
22. चांदावत मेड़तिया
23. प्रतापसिंहोत मेड़तिया
24. गोपीनाथोत मेड़तिया
25. मांडणोत मेड़तिया
26. रायसालोत मेड़तिया

जौधा राठौड़ की 45 उप शाखाएँ

1. बरसिंगोत जौधा
2. रामावत जौधा
3. भारमलोत जौधा
4. शिवराजोत जौधा
5. रायपालोत जौधा
6. करमसोत जौधा
7. बणीवीरोत जौधा
8. खंगारोत जौधा
9. नरावत जौधा
10. सांगावत जौधा
11. प्रतापदासोत जौधा
12. देवीदासोत जौधा
13. सिखावत जौधा
14. नापावत जौधा
15. बाघावत जौधा
16. प्रताप सिंहोत जौधा
17. गंगावत जौधा
18. किशनावत जौधा
19. रामोत जौधा
20. के सादोसोत जौधा
21. चन्द्रसेणोत जौधा
22. रत्नसिंहोत जौधा
23. महेश दासोत जौधा
24. भोजराजोत जौधा
25. अभैराजोत जौधा
26. केसरी सिंहोत जौधा
27. बिहारी दासोत जौधा
28. कमरसेनोत जौधा
29. भानोत जौधा
30. डंूगरोत जौधा
31. गोयन्द दासोत जौधा
32. जयत सिंहोत जौधा
33. माधो दासोत जौधा
34. सकत सिंहोत जौधा
35. किशन सिंहोत जौधा
36. नरहर दासोत जौधा
37. गोपाल दासोत जौधा
38. जगनाथोत जौधा
39. रत्न सिंगोत जौधा
40. कल्याणदासोत जौधा
41. फतेहसिंगोत जौधा
42. जैतसिंहोत जौधा
43. रतनोत जौधा
44. अमरसिंहोत जौधा
45. आन्नदसिगोत जौधा

बीका राठौड़ की 26 उप शाखाएँ

1. घुड़सिगोत बीका
2. राजसिंगोत बीका
3. मेघराजोत बीका
4. केलण बीका
5. अमरावत बीका
6. बीकस बीका
7. रतनसिंहोत बीका
8. प्रतापसिंहोत बीका
9. नारणोत बीका
10. बलभद्रोत नारणोत बीका
11. भोपतोत बीका
12. जैमलोत बीका
13. तेजसिंहोत बीका
14. सूरजमलोत बीका
15. करमसिंहोत बीका
16. नीबावत बीका
17. भीमराजोत बीका
18. बाघावत बीका
19. माधोदासोत बीका
20. मालदेवोत बीका
21. श्रृगोंत बीका
22. गोपालदासोत बीका
23. पृथ्वीराजोत बीका
24. किशनहोत बीका
25. अमरसिंहोत बीका
26. राजवी बीका



चन्देल वंश (उत्पत्ति एवं परिचय)

चन्देल वंश मध्यकालीन भारत का प्रसिद्ध राजवंश। जिसने 08वीं से 12वीं शताब्दी तक स्वतंत्र रूप से यमुना और नर्मदा के बीच, बुंदेलखंड तथा उत्तर प्रदेश के दक्षिणी-पश्चिमी भाग पर राज किया। चंदेल वंश के शासकों का बुंदेलखंड के इतिहास में विशेष योगदान रहा है। उन्‍होंने लगभग चार शताब्दियों तक बुंदेलखंड पर शासन किया। चन्देल शासक न केवल महान विजेता तथा सफल शासक थे, अपितु कला के प्रसार तथा संरक्षण में भी उनका महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। चंदेलों का शासनकाल आमतौर पर बुंदेलखंड के शांति और समृद्धि के काल के रूप में याद किया जाता है। चंदेलकालीन स्‍थापत्‍य कला ने समूचे विश्‍व को प्रभावित किया उस दौरान वास्तुकला तथा मूर्तिकला अपने उत्‍कर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं खजुराहो के मंदिर।

इस वंश की उत्पत्ति का उल्लेख कई लेखों में है। प्रारंभिक लेखों में इसे "चंद्रात्रेय" वंश कहा गया है पर यशोवर्मन् के पौत्र देवलब्धि के दुदही लेख में इस वंश को "चंद्रल्लावय" कहा है। कीर्तिवर्मन् के देवगढ़ शिलालेख में और चाहमान पृथ्वीराज तृतीय के लेख में "चन्देल" शब्द का प्रयोग हुआ है। इसकी उत्पत्ति भी चंद्रमा से मानी जाती है इसीलिये "चंद्रात्रेयनरेंद्राणां वंश" के आदिनिर्माता चंद्र की स्तुति पहले लेखों में की गई है। धंग के विक्रम सं. 1011 (954 ई.) के खजुराहो वाले लेखों में जो वंशावली दी गई है, उसके अनुसार विश्वशृक पुराणपुरुष, जगन्निर्माता, ऋषि मरीचि, अत्रि, मुनि चंद्रात्रेय भूमिजाम के वंश में नृप नंनुक हुआ जिसके पुत्र वा पति और पौत्र जयशक्ति तथा विजयशक्ति थे। विजय के बाद क्रमश: राहिल, हर्ष, यशोवर्मन् और धंग राजा हुए। वास्तव में नंनुक से ही इस वंश का आरंभ होता है और अभिलेख तथा किंवदंतियों से प्राप्त विवरणों के आधार पर उनका संबंध आरंभ से ही खजुराहो से रहा। अरब इतिहास के लेखक कामिल ने भी इनको "कजुराह" में रखा है। धंग से इस वंश के संस्थापक नंनुक की तिथि निकालने के लिय यदि हम प्रत्येक पीढ़ी के लिये 20-25 वर्ष का काल रखें तो धंग से छह पीढ़ी पहले नंनुक की तिथि से लगभग 120 वर्ष पूर्व अर्थात् 954 ई. - 120 = 834 ई. (लगभग 830 ई.) के निकट रखी जा सकती है। "महोबा खंड" में चंद्रवर्मा के अभिषेक की तिथि 225 सं. रखी गई है। यदि "चंद्रवर्मा" का नंनुक का विरुद अथवा दूसरा नाम मान लिया जाय और इस तिथि को हर्ष संवत् में मानें तो नंनुक की तिथि (606 + 225) अथवा 831 ई. आती है। अत: दोनों अनुमानों से नंनुक का समय 831 ई. माना जा सकता है।

वाक्पति ने विंध्या के कुछ शत्रुओं को हराकर अपना राज्य विस्तृत किया। तृतीय नृप जयशक्ति ने अपने ही नाम से अपने राज्य का नामकरण जेजाकभुक्ति किया। कदाचित् यह प्रतिहार सम्राट् भोज का सामंत राजा था और यही स्थिति उसके भाई विजयशक्ति तथा पुत्र राहिल की भी थी। हर्ष और उसके पुत्र यशोवर्मन् के समय परिस्थिति बदल गई। गुर्जरों और राष्ट्रकूटों के बीच निरंतर युद्ध से अन्य शक्तियाँ भी ऊपर उठने लगीं। इसके अतिरिक्त महेंद्रपाल के बाद कन्नौज के सिंहासन के लिये भोज द्वितीय तथा क्षितिपाल में संघर्ष हुआ। खजुराहो के एक लेख में हर्ष अथवा उसके पुत्र यशोवर्मन् द्वारा पुन: क्षितिपाल को सिंहासन पर बैठाने का उल्लेख है- पुनर्येन श्री क्षितिपालदेव नृपसिंह: सिंहासने स्थापित:।


चंदेल राजा कदाचित् स्वतंत्र बन चुके थे और वे प्रतिहार सम्राटों के अधीन न थे अथवा केवल नाममात्र के लिये थे। धंग के नन्योरा के लेख (वि.सं. 1055-978) में हर्ष के अधीनस्थ राजाओं का उल्लेख है। चाहमान तथा कलचुरि वंशों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित कर, चंदेल राजा उत्तरी भारत की राजनीतिक परिस्थिति में अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास करने लगे। हर्ष के पुत्र यशोवर्मन् के समय चंदेलों का गौड़, कोशल, मिथिला, मालव, चेदि, तथा गुर्जर राजाओं के साथ संघर्ष का संकेत है। उसने कालिंजर भी जीता। प्रशस्तिकार ने उसकी प्रशंसा बढ़ा चढ़ाकर की हो तब भी इसमें संदेह नहीं कि चंदेल राज्य धीरे धीरे शक्तिशाली बन रहा था। नाम मात्र के लिये इस वंश के राजा गुर्जर प्रतिहार राजाओं का आधिपत्य माने हुए थे। धंग के खजुराहों लेख में अंतिम बार गुर्जर सम्राट् विनायकपालदेव का उल्लेख हुआ है। धंगदेव वैधानिक रूप से और वस्तुत: स्वतंत्र हो गया था। यशोवर्मन् के समय खजुराहों के विष्णुमंदिर में बैकुंठ की मूर्तिस्थापना का लेख है जिसे कैलास से भोटनाथ से प्राप्त की थी। मित्र रूप में वह केर राजा शाहि के पास आई और उसमें हयपति देवपाल के पुत्र हेरंबपाल ने लड़कर प्राप्त की। देवपाल से यह मूर्ति यशोवर्मन् को मिली। कुछ विद्वान् इससे चंदेलों की प्रतिहार राजा पर विजय का संकेत मानते हैं, पर यथार्थ तो यह है कि "हयपति" उपाधि का गुर्जर प्रतिहार सम्राट् से संबंध ही न था। कदाचित् वह कोई स्थानीय राजा रहा होगा।


चंदेलों में धंगदेव सबसे प्रसिद्ध तथा शक्तिशाली राजा हुआ और इसने 50 वर्ष (950 से 1000 ई.) तक राज किया। उसके लंबे राज्यकाल में खजुराहो के दो प्रसिद्ध मंदिर विश्वनाथ तथा पार्श्वनाथ बने। पंजाब के राजा जयपाल की सहायता के लिये अजमेर और कन्नौज के राजाओं के साथ उसने गजनी के सम्राट् सुबुक्तगीन के विरुद्ध सेना भेजी। उसके पुत्र गंड (1001-1017) ने भी अपने पिता की भाँति पंजाब के राजा आनंदपाल की महमूद गजनी के विरुद्ध सहायता की। महमूद के कन्नौज पर आक्रमण और राज्यपाल के आत्मसमर्पण के विरोध में गंड के पुत्र विद्याधर ने कन्नौज के राजा का वध कर डाला, पर 1023 ई. में गंड को स्वयं कालिंजर का गढ़ महमूद को दे देना पड़ा। महमूद के लौटने पर यह पुन: चंदेलों के पास आ गया। गंड के समय कदाचित् जगदंबी नामक वैष्णव मंदिर तथा चित्रगुप्त नामक सूर्यमंदिर बने। गंड के पुत्र विद्याधर (लगभग 1019-1029) को इब्नुल अथीर नामक मुसलमान लेखक ने अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा कहा है। उसके समय चंदेलों ने कलचुरी और परमारों पर विजय पाई और 1019 तथा 1022 में महमूद का मुकाबला किया। चंदेल राज्य की सीमा विस्तृत हो गई थी। कहा जाता है कि कंदरीय महादेव का विशाल मंदिर भी इसी ने बनवाया (देखिए, खजुराहो)।



विद्याधर के बाद चन्देल राज्य की कीर्ति और शक्ति घटने लगी। विजयपाल (लगभग 1029-51) इस युग का प्रमुख चंदेल नृप हुआ। कीर्तिवर्मन् (1070-95) तथा मदनवर्मन् (लगभग 1029-1162) भी प्रमुख चंदेल नृप हुए। कलचुरी सम्राट् दाहिले की विजय से 1040-70 तक के लंबे काल के लिये चंदेलों की शक्ति क्षीण हो गई थी। विल्हण ने कर्ण को कालिंजर का राजा बताया है। कीर्तिवर्मन् ने चंदेलों की खोई हुई शक्ति और कलचुरियों द्वारा राज्य के जीते हुए भाग को पुन: लौटाकर अपने वंश की लुप्त प्रतिष्ठा स्थापित की। उसने सोने के सिक्के भी चलाए जिसमें कलचुरि आंगदेव के सिक्कों का अनुकरण किया गया है। केदार मिश्र द्वारा रचित "प्रबोधचंद्रोदय" (1065 ई.) इसी चंदेल सम्राट् के दरबार में खेला गया था। इसमें वेदांतदर्शन के तत्वों का प्रदर्शन है। यह कला का भी प्रेमी था और खजुराहों के कुछ मंदिर इसके शासनकाल में बने। कीर्तिवर्मन् के बाद सल्लक्षण बर्मन् या हल्लक्षण वर्मन्, जयवर्मनदेव तथा पृथ्वीवर्मनदेव ने राज्य किया। अंतिम सम्राट्, जिसका वृत्तांत "चंदरासो" में उल्लिखित है, परमर्दिदेव अथवा परमाल (1165-1203) था। इसका चौहान सम्राट् पृथ्वीराज चौहान से संघर्ष हुआ और 1208 में कुतबुद्दीन ने कालिंजर का गढ़ इससे जीत लिया, जिसका उल्लेख मुसलमान इतिहासकारों ने किया है। चंदेल राज्य की सत्ता समाप्त हो गई पर शसक के रूप में इस वंश का अस्तित्व कायम रहा। 16वीं शताब्दी में स्थानीय शासक के रूप में चंदेल राजा बुंदेलखंड में राज करते रहे पर उनका कोई राजनीतिक प्रभुत्व न रहा।
चंदेल शासन परंपरागत आदर्शों पर आधारित था। यशोवर्मन् के समय तक चंदेल नरेश अपने लिये किसी विशेष उपाधि का प्रयोग नहीं करते थे। धंग ने सर्वप्रथम परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर परममाहेश्वर कालंजराधिपति का विरुद धारण किया। कलचुरि नरेशों के अनुकरण पर परममाहेश्वर श्रीमद्वामदेवपादानुध्यात तथा त्रिकलिंगाधिपति और गाहड़वालों के अनुकरण पर परमभट्टारक इत्यादि समस्त राजावली विराजमान विविधविद्याविचारवाचस्पति और कान्यकुब्जाधिपति का प्रयोग मिलता है।

हम्मीरवर्मन् की साहि उपाधि संभवत: मुस्लिम प्रभाव के कारण थी; राजवंश के अन्य व्यक्तियों को भी शासन में अधिकार के पद मिलते थे। कुछ अभिलेखों से प्रतीत होता है कि कुछ मंत्रियों को उनके पद का अधिकार वंशगत रूप में प्राप्त हुआ था। मंत्रियों के लिये मंत्रि, सचिव और अमात्य का प्रयोग बिना किसी विशेष अंतर के किया गया है। मंत्रिमुख्य के अतिरिकत अधिकारियों में सांधिविग्रहिक, प्रतिहार, कंचुकि, कोशाधिकाराधिपति, भांडागाराधिपति, अक्षपटलिक, कोट्टपाल, विशिष, सेनापति, हस्त्यश्वनेता, पुरबलाध्यक्ष आदि के नाम आते हैं। शासन के कुछ कार्य पंचकुल और धर्माधिकरण जैसे बोर्डो के हाथ में था। राज्य विषय, मंडल, पत्तला, ग्रामसमूह और ग्रामों में विभक्त था। शासन में सामंत व्यवस्था कुछ रूपों में उपस्थित थी। एक अभिलेख में एक मंत्री को मांडलिक भी कहा गया है। विशिष्ट सैनिक सेवा के लिये गाँव दिए जाते थे। युद्ध में मरे सैनिकों के लिये किसी प्रकार के पेंशन अथवा मृत्युक वृत्ति की भी व्यवस्था थी। चंदेल राज्य की भौगोलिक और प्राकृतिक दशा के कारण दुर्गों का विशेष महत्व था और उनकी ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। अभिलेखों में राज्य द्वारा लिए गए करों की सूची में भाग, भोग, कर, हिरण्य, पशु, शुल्क और दंडादाय का उल्लेख है।


ब्राह्मणों में द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, श्रोत्रिय, अग्निहोत्री, पंडित, दीक्षित और भट्ट के सथ ही राउत और ठक्कुर का भी उपयोग मिलता है। ब्राह्मणों ने अपने को परंपरागत आदर्शों और जीविकाओं तक ही सीमित नहीं रखा था। क्षत्रियों में जाति के स्थान पर कुल का गौरव बढ़ रहा था। 11वीं शताब्दी तक कायस्थों के उल्लेख आते हैं। चंदले राज्य में इनकी संख्या अधिक थी। वैश्य और शूद्र अपने वर्ण के स्थान पर अपने व्यवसाय का ही उल्लेख करते हैं। सजातीय विवाह का ही प्रचलन था। बहुविवाह की भी प्रथा थी।


अभिलेखों में रूपकार, रीत्तिकार, पित्तलकार, सूत्रधार, वैद्य, अश्ववैद्य, नापित और धीवर के उल्लेख मिलते हैं। उद्योगों में कुशलता के स्तर के अनुसार शिल्पिन्, विज्ञाविन् और वैदाग्धि की उपाधियाँ होती थीं। कृषि की सुविधा के लिये सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। व्यापार प्रधानत: जैनियों के हाथ में था। श्रेष्ठि का राज्य में भी गौरव था। कीर्तिवर्मन् पहला चंदेल नरेश् था जिसने सिक्के बनवाए।


चंदेल राज्य में पौराणिक धर्म की जनप्रियता बढ़ रही थी। चंदेल राजा और उनके मंत्री तथा अन्य अधिकारियों के द्वारा प्रतिमा और मंदिर के निर्माण के कई उल्लेख मिलते हैं। विष्णु के अवतारों में वराह, वामन, नृसिंह, राम और कृष्ण की पूजा का अधिक प्रचलन था। चंदेल राज्य से हनुमान की दो विशाल प्रतिमाएँ मिली हैं और कुछ चंदेल सिक्कों पर उनकी आकृति भी अंकित हैं किंतु विष्णु की तुलना में शिव की पूजा का अधिक प्रचार था। धंग के समय से चंदेल नरेश शैव बन गए। शिवलिंग के साथ ही शिव की आकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं। शिव के विभिन्न स्वरूपों के परिचायक उनके अनेक नाम अभिलेखों में आए हैं। शक्ति अथवा देवी के लिये भी अनेक नामों का उपयोग हुआ है। अजयगढ़ में अष्टशक्तियों की मूर्तियाँ अंकित हैं। सूर्य की पूजा भी जनप्रिय थी। गणेश और ब्रह्मा की मूर्तियाँ यद्यपिं मिली हैं लेकिन उनके पूजकों के पथक् संप्रदायों के अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिलता। अन्य देवता जिनके उल्लेख हैं या जिनकी प्रतिमाएँ मिलती हैं। उनके नाम हैं- लक्ष्मी, सरस्वती, इंद्र, चंद्र और गंगा। बुद्ध, बोधिसत्व और तारा की कुछ प्रतिमाएँ मिलती हैं। ब्राह्मण धर्म की भाँति जैन धर्म का भी प्रचार था, विशेष रूप से वैश्यों में। किंतु सांप्रदायिक कटुता के उदाहरण नहीं मिलते। चंदेल नरेशों की नीति इस विषय में उदार थी।


चंदेल राज्य अपनी कलाकृतियों के कारण भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध हैं। चंदेल मंदिरों में से अधिकांश खजुराहों में हैं। कुछ महोबा में भी हैं। इनका निर्माण मुख्यत: 10वीं शताब्दी के मध्य से 11वीं शताब्दी के मध्य के बीच हुआ है। ये शैव, वैष्णव और जैन तीनों ही धर्मों के हैं। इन मंदिरों में अन्य क्षेत्रों की प्रवत्तियों का प्रभाव भी ढूँढ़ा जा सकता है किंतु प्रधान रूप से इनमें चंदेल कलाकार की मौलिक विशेषताएँ दिखलाई पड़ती हैं। एक विद्वान् का कथन है कि भवन-निर्माण-कला के क्षेत्र में भारतीय कौशल को खजुराहों के मंदिरों में सर्वोच्च विकास प्राप्त हुआ है। ये मंदिर विशालता के कारण नहीं बल्कि अपनी भव्य योजना और समानुपातिक निर्माण के लिये प्रसिद्ध हैं। मंदिर के चारों ओर कोई प्राचीर नहीं होती। मंदिर ऊँचे चबूतरे (अधिष्ठान) पर बना होता है। इसमें गर्भगृह, मंडप, अर्धमंडप, अंतराल और महामंडल होते हैं। इक मंदिरों की विशेषता इनके शिखर हैं जिनके चारों ओर अंग शिखरों की पुनरावृत्ति रहती है।


इन मंदिरों की मूर्तिकला भी इनकी विशेषता है। इन मूर्तियों की केवल संख्या ही स्वंय उल्लेखनीय है। इनके निर्माण में सूक्ष्म कौशल के साथ ही अद्भुत सजीवता दिखलाई पड़ती है। इन कृतियों के विषय भी विविध हैं : प्रधान देवी देवता, परिवारदेवता, गौण देवता, दिक्पाल, नवग्रह, सुरसुंदर, नायिका, मिथुन, पशु और पुष्पलताएँ तथा रेखागणितीय आकृतियाँ। इन मंदिरों में मिथुन आकृतियों की इतनी अधिक संख्या में उपस्थिति का कोई सर्वमान्य हल नहीं बतलाया जा सकता। महोबा से प्राप्त चार बौद्ध प्रतिमाएँ अतीव सुंदर हैं। इनमें से सिंहनाद अवलोकितेश्वर की मूर्ति तो भारतीय मूर्तिकला के सर्वोत्कृष्ट नमूनों में से एक है।



साहित्य के क्षेत्र में कोई विशेष उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई। कुछ चंदेल अभिलेखकाव्य की दृष्टि से अच्छे हैं। चंदेलों के कुछ मंत्रियों और अधिकारियों को लेखों में कवि, बालकवि, कवींद्र, कविचक्रवर्तिन् आदि कहा गया है जिससे चंदेल राजाओं की कवियों को प्रश्रय देने की नीति का बोध होता है। श्रीकृष्ण मिश्र रचित प्रबोधचंद्रोदय नाटक चंदेल राजा कीर्तिवर्मन् के समय की रचना है।

पुरु वंश का परिचय और गोत्र प्रवर

मित्रों आज हम आपको प्राचीन चंद्रवंशी क्षत्रिय "पुरु वंश,इसकी शाखा हरिद्वार क्षत्रिय" के बारे में जानकारी देंगे और पुरुवंशी राजपूत राजा पोरस द्वारा विश्वविजेता सिकंदर को दी गई करारी पराजय के बारे में विस्तार से जानकारी देंगे..........
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चंद्रवंशी महाराजा ययाति के पुत्र पुरु के वंशज पुरु,पौर,पौरववंशी वंशी क्षत्रिय कहलाते हैं,इस वंश के महाराजा मतिनार सूर्यवंशी सम्राट मान्धाता के नाना थे,महाराजा पुरु से एक शाखा कुरु वंश की चली,इनसे चन्द्रवंश की अन्य शाखाएँ भी चली,एक शाखा बाद तक पुरु या पौरव वंशी कहलाती रही...

गोत्र--भारद्वाज
प्रवर तीन--भारद्वाज,ब्रह्स्पतय,अंगिरस
वेद--यजुर्वेद
शाखा--वाजसनेयी
नदी--महेंद्र तनया(सतलुज)
वृक्ष--वट
छत्र--मणिक मुक्त स्वर्ण छत्र
ध्वजा--लाल झंडे पर चंद्रमा का चिन्ह
शस्त्र--खडग
परम्परा--विजयादशमी को खडग पूजन होता है
शाखाएँ--हरिद्वार क्षत्रिय राजपूत,कटोच राजपूत,पुरी(खत्री)
गद्दी एवं राज्य--प्रतिष्ठानपुर,पंजाब आदि
वर्तमान निवास--पाकिस्तान,पंजाब,आजमगढ़ एवं बहुत कम संख्या में बुलंदशहर,मेरठ में भी मिलते हैं,पंजाब और यूपी में कहीं कहीं मिलने वाले भारद्वाज राजपूत भी संभवत: पुरु अथवा पौरववंशी राजपूत ही हैं.
प्रसिद्ध पुरु अथवा पौरवंशी--विश्वविजेता यवन सिकन्दर को हराने वाले वीर पुरुवंशी राजा परमानन्द अथवा पुरुषोत्तम

पुरुवंश की शाखा हरिद्वार क्षत्रिय---------
गोत्र--भार्गव,प्रवर तीन--भार्गव,निलोहित,रोहित
यह पुरु वंश की उपशाखा है,पृथ्वीराज चौहान के समय इस वंश के आदि पुरुष राव हंसराम पंजाब से अपने परिवार के साथ हरिद्वार आकर बसे थे,उस समय यहाँ राजा चन्द्रपुंडीर पृथ्वीराज चौहान के सामंत के रूप में शासन कर रहे थे,इन्होने राव हंसराम को जागीर प्रदान की और हरिद्वार में पुरु वंश की शाखा का विस्तार होने लगा,बाद में इस इलाके में तुर्कों का दबाव होने के कारण पुरुवंशी क्षत्रिय यहाँ से पलायन कर पूर्वी क्षेत्र में चले गए और आजकल यूपी के आजमगढ़ के आसपास मिलते हैं,हरिद्वार से आने के कारण इन्हें हरिद्वार क्षत्रिय राजपूत वंश कहा जाने लगा.....

पाकिस्तान के पंजाब क्षेत्र में कई मुस्लिम राजपूत वंश जो खुद को चन्द्रवंशी बताते हैं उन वंशो का अस्तित्व भारत के हिन्दू चंद्रवंशी राजपूतो में नहीं मिलता है,न ही अलग से 36 वंशो की किसी भी सूची में इनका नाम मिलता है.चूंकि सिकन्दर के हमले के समय पुरुवंश का शासन पंजाब और भारत के सीमावर्ती क्षेत्र में था इसलिए हो सकता है ये पुरुवंशी क्षत्रियों के ही वंशज हों.....
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-------यूनानी विश्वविजेता सिकन्दर(Alexander) का भारत पर आक्रमण एवं पुरुवंशी राजा द्वारा उसकी पराजय----------

सिकन्दर(Alexander) का परिचय--------

प्राचीन काल में भारतीय आर्यों की एक शाखा एशिया पार कर आज के यूरोप,यूनान,रोम में बस गई थी,पुराणों और अन्य भारतीय ग्रंथो में यवनों का परिचय व्रात्य क्षत्रियों के रूप में होता है जिससे यवन प्राचीन आर्यों की शाखा सिद्ध होती है.
सिकन्दर(Alexander) यूनान के उत्तर में स्थित मकदूनिया(mecedoniya) के बादशाह फिलिप के पुत्र थे.मात्र बीस वर्ष की आयु में सिकन्दर बादशाह बन गए,प्राचीन काल से ईरान और यूनान के बीच शत्रुता चली आ रही थी,सिकन्दर(Alexander) ने विश्वविजेता बनने का प्रण लिया,और बड़ी सेना के साथ अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ कर दी,
उस समय यूरोप में यूनान,रोम को छोडकर शेष जगह सभ्यता न के बराबर थी,और ज्ञात प्राचीन सभ्यताएँ एशिया महाद्वीप,मिस्र, में ही स्थित थी,इसलिए सिकन्दर(Alexander) ने सेना लेकर पूर्व का रूख किया,थीव्स,मिस्र इराक,मध्य एशिया को जीतता हुआ ईरान पहुंचा जहाँ क्षर्याश का उतराधिकारी दारा शासन कर रहा था,उसने दारा को हराकर उसके महल को आग लगा दी,और इस प्रकार क्षर्याश द्वारा एथेंस को जलाए जाने का बदला लिया.

इसके बाद वो आगे बढकर हिरात,काबुल,समरकंद,को जीतता हुआ सिंध नदी की उत्तरी घाटी तक पहुँच गया.
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.

पुरु अथवा पौरस का परिचय-----

यूनान के इतिहास लेखक सिकन्दर से युद्ध करने वाले भारतीय राजा का नाम अपनी भाषा पोरस अथवा पुरु बताते हैं,वस्तुत: यह उसका नाम नहीं बल्कि पुरुवंश का परिचायक है,कटोच इतिहास में इस वीर राजा का नाम परमानन्द कटोच बताया जाता है,तथा खत्री जाति के जानकार इसका नाम पुरुषोत्तम खुखेरीयान बताते हैं,तथा इनके वंशज खत्रियो में पुरी कहलाते बताए जाते हैं,
हम बता ही चुके हैं कि कटोच राजपूत भी अत्यंत प्राचीन चंद्रवंशी क्षत्रिय हैं,संभवत कटोच भी चंद्रवंशी पुरु के वंशज हो सकते हैं,उस समय सम्भवत: खत्री जाति क्षत्रियों से प्रथक नहीं हुई थी,तो संभव है कि पुरु वंशी राजा परमानन्द अथवा पुरुषोत्तम आज के पुरुवंशी (पौरववंशी) राजपूतो,कटोच राजपूत और पुरी खत्रीयों के साझे पूर्वज हों......
पुरु वंशी राजा पोरस(यूनानी इतिहास लेखको द्वारा दिया गया नाम) का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.....

पोरस और सिकन्दर का युद्ध--------

जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.
अम्भि(यह भी संभवत राजा का नाम न होकर उसके वंश का नाम था जिसको आज के आभीर या अहीर जाति माना जा सकता है) का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया..

"प्लूटार्च" के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..

पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है--"इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था".....

इसी तरह का वर्णन "डियोडरस" ने भी किया है --विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों की हड्डियाँ-पसलियाँ चूर-चूर कर दी.हाथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे..अपने विकराल गज-दन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे...

अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए ये क्या सिद्ध करता है..फिर "कर्टियस" का ये कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था ये क्या सिद्ध करता है...?

एक और विद्वान ई.ए. डब्ल्यू. बैज का वर्णन देखिए----उनके अनुसार "झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था.सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा.अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की -"श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है..मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय.मैं इनका अपराधी हूँ,....और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया"".--

ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है..

इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी.विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा,इस क्षेत्र में कठ जनजाति(संभवत आज के काठी क्षत्रिय,मालव,राष्ट्रिक(राठौड़,कम्बोज,दहियक,आदि ने भी सिकन्दर का डटकर सामना किया.
जिससे लड़ते लड़ते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े..इस विषय पर "प्लूटार्च" ने लिखा है कि मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी..इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए.इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया...तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए..
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट ही चुका था रहा सहा कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी..अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे पर इतना भी मनोबल शेष ना रह गया था कि ये समुद्र मार्ग से लौटें...क्योंकि स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उन लोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था फलतः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौटे....

इतिहासकारों द्वारा वीर पोरस के साथ किया गया अन्याय-------

अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि सिकन्दर ने पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े...

जितना बड़ा अन्याय और धोखा इतिहासकारों ने महान पौरस के साथ किया है उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा।एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा को निर्बल और पराजित राजा बना दिया गया....

चूँकि सिकन्दर पूरे यूनान,मिस्र,ईरान,ईराक,बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके और अपने आपको दिलासा देने के लिए अपनी एक मन-गढंत कहानी बनाकर उस इतिहास को लिख दिए जो वो लिखना चाह रहे थे.... भारतीय इतिहासकारों का दुर्भाग्य देखिये कि उन्होंने भी बिना सोचे-समझे उसी मनगडंथ यूनानी इतिहास को नकल कर लिख दिया...

कुछ हिम्मत ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने दिखाई है जो उन्होंने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं.इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया..चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है,नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है.......

पोरस की महानता का एक और उदाहरण देखिए--जब सिकन्दर ने पोरस के राज्य पर आक्रमण किया तो पोरस ने सिकन्दर को अकेले-अकेले यानि द्वन्द युद्ध का निमंत्रण भेजा ताकि अनावश्यक नरसंहार ना हो और द्वंद्व युद्ध के जरिए ही निर्णय हो जाय पर इस वीरतापूर्ण निमंत्रण को सिकन्दर ने स्वीकार नहीं किया...

अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में-------

"सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था..उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई..!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इसतरह अपमान कर रहे हैं.!!

अब निर्णय करिए कि पोरस तथा सिकन्दर में विश्व-विजेता कौन था..? दोनों में वीर कौन था..?दोनों में महान कौन था..?

भारतीय इतिहासकारों ने तो पोरस को इतिहास में स्थान देने योग्य समझा ही नहीं है.इतिहास में एक-दो जगह इनका नाम आ भी गया तो बस सिकन्दर के सामने बंदी बनाए गए एक निर्बल निरीह राजा के रुप में.....
जो राष्ट्र वीरों का इस तरह अपमान करेगा क्या वो राष्ट्र ज्यादा दिन तक टिक पाएगा????????

====कटोच वंश के गोत्र,कुलदेवी आदि=====
गोत्र-अत्री
ऋषि-कश्यप 
देवी-ज्वालामुखी देवी
वंश-चन्द्रवंश,भुमिवंश 
गद्दी एवं राज्य-मुल्तान,जालन्धर,नगरकोट,कांगड़ा,गुलेर,जसवान,सीबा,दातारपुर,लम्बा आदि
शाखाएँ-जसवाल,गुलेरिया,सबैया,डढवाल,धलोच आदि
उपाधि-मिया
वर्तमान निवास-हिमाचल प्रदेश,जम्मू कश्मीर,पंजाब आदि
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=== कटोच वंश का परिचय ===
सेपेल ग्रिफिन के अनुसार कटोच राजपूत वंश विश्व का सबसे पुराना राजवंश है। कटोच चंद्रवंशी क्षत्रिय माने जाते है। कटोच राजघराना एवं राजपूत वंश महाभारत काल से भी पहले से उत्तर भारत के हिमाचल व पंजाब के इलाके में राज कर रहा है। महाभारत काल में कटोच राज्य को त्रिगर्त राज्य के नाम से जाना जाता था और आज के कटोच राजवंशी त्रिगर्त राजवंश के ही उत्तराधिकारी है।कल्हण कि राजतरंगनी में त्रिगर्त राज्य का जिक्र है,कल्हण के अनुसार कटोच वंश के राजा इन्दुचंद कि दो राजकुमारियों का विवाह कश्मीर के राजा अनन्तदेव(१०३०-१०४०)के साथ हुआ था,
पृथ्वीराज रासो में इस वंश का नाम कारटपाल मिलता है,
अबुल फजल ने भी नगरकोट राज्य,कांगड़ा दुर्ग एवं ज्वालामुखी मन्दिर का जिक्र किया है,
यूरोपियन यात्री विलियम फिंच ने 1611 में अपनी यात्रा में कांगड़ा का जिक्र किया था,डा व्युलर लिखता है की कांगड़ा राज्य का एक नाम सुशर्मापुर था जो कटोच वंश को प्राचीन त्रिगर्त वंश के शासक सुशर्माचन्द का वंशज सिद्ध करता है,
त्रिगर्त राज्य की सीमाएँ एक समय पूर्वी पाकिस्तान से लेकर उत्तर में लद्दाख तथा पूरे हिमाचल प्रदेश में फैलि हुईं थी। त्रिगर्त राज्य का जिक्र रामायण एवं महाभारत में भी भली भांति मिलता है। कटोच राजा सुशर्माचन्द्र ने दुर्योधन का साथ देते हुए पांडवों के विरुद्ध युद्ध लड़ा था। सुशर्माचन्द्र का अर्जुन से युद्ध का जिक्र भी महाभारत में मिलता है। त्रिगर्त राज्य की मत्स्य और विराट राज्य के साथ शत्रुता का जिक्र महाभारत में उल्लेखित है।
कटोच वंश का जिक्र सिकंदर के युद्ध रिकार्ड्स में भी जाता है। इस वंश ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय उससे युद्ध छेड़ा और काँगड़ा राज्य को बचाने में सक्षम रहे।

ब्रह्म पूराण के अनुसार कटोच वंश के मूल पुरुष राजा भूमि चन्द्र माने जाते है,इस कारण इस वंश को भुमिवंश भी कहा जाता है.इन्होने जालन्धर असुर को नष्ट किया था जिस कारण देवी ने प्रसन्न होकर इन्हें जालन्धर असुर का राज्य त्रिगर्त राज्य दिया था,इस वंश का राज्य पहले मुल्तान में था,बाद में जालन्धर में इनका शासन हुआ,जालन्धर और त्रिगर्त पर्यायवाची शब्द है
भुमिचंद ने सन ४३०० ईसा पूर्व में कटोच वंश एवं त्रिगर्त राज्य की स्थापना की। यह वंश कितना पुराना इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है के महाभारत कल के राजा सुशर्माचंद राजा भूमिचन्द्र के २३४ वीं पीढ़ी में पैदा हुए।

इस प्राचीन चंद्रवंशी राजवंश ने सदियों से विदेशी,देशी हमलावरों का वीरतापूर्वक सामना किया है,
हिमाचल प्रदेश का मसहूर काँगड़ा किला भी कटोच वंश के क्षत्रियों की धरोहर है। कटोच वंश के बारे में काँगड़ा किले में बने महाराजा संसारचन्द्र संग्रहालय से बहूत कुछ जाना जा सकता है।
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==== कटोच वंश के वर्तमान टिकाई मुखिया और राजपरिवार ====
राजा श्री आदित्य देव चन्द्र कटोच , कटोच वंश के ४८८ वे राजा और काँगड़ा राजपरिवार के मुखिया एवं लम्बा गाँव के जागीरदार है। यह पदवी इन्हे सं १९८८ से प्राप्त है। ४ दिसंबर १९६८ में इनकी शादी जोधपुर राजघराने की चंद्रेश कुमारी से हुई। इनके पुत्र टिक्का ऐश्वर्या चन्द्र कटोच कटोच वंश के भावी मुखिया है।
काँगड़ा राजघराने ने सन १८०० के आस पास से ही अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का युद्ध छेड़ दिया था। संघर्ष काफी समय तक चला जिसमे इस परिवार को काँगड़ा गंवाना पड़ा। आख़िरकार सं १८१० में दोनों पक्षों के बीच संधि हुई और काँगड़ा राजपरिवार को लम्बा गांव की जागीर मिली। तत्पश्चात काँगड़ा राजपरिवार और कटोच राजपूतो के राजगद्दी लम्बा गॉव के जागीरदार के मानी जाती है।
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=== कटोच वंश की शाखाएँ ===
कटोच वंश की चार मुख्य शाखाएँ है :
1. जसवाल : ११७० ईस्वीं में जसवान का राज्य स्थापित होने के बाद यह शाख अलग हुई।
2. गुलेरिया : १४०५ ईस्वीं में कटोचों के गुलेर राज्य स्थापित होने के बाद कटोच से यह शाखा अलग हुई।
3. सबैया : १४५० ईस्वी के दौरान गुलेर से सिबा राज्य अलग होने के बाद सिबा के गुलेर सबैया कटोच कहलाए।
4. डढ़वाल : १५५० में इस शाखा ने दातारपुर राज्य की स्थापना की, इस शाखा का नाम डढा नामक स्थान पर बसावट के कारन पड़ा।
कटोच वंश की अन्य शाखाए धलोच,गागलिया,गदोहिया,जडोत,गदोहिया आदि भी है।

=== कटोच वंश की संछिप्त वंशावली और तत्कालीन समय का जुड़ा हुआ इतिहास ====
C. 7800 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
राजनका (राजपूत का प्रयायवाची शब्द) भूमि चन्द्र से इस वंश की शुरुआत हुई।जिन्होंने त्रिगर्त राज्य जालन्धर असुर को मारकर प्राप्त किया,मुल्तान(मूलस्थान)इन्ही का राज्य था.
C. 7800 - 4000 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
त्रिगर्त राजवंश यानी मूल कटोच वंशियों ने श्री राम के खिलाफ युद्ध लड़ा(रामायण में उल्लेखित)
C. 4000 - 1500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
त्रिगता नरेश शुशर्माचंद ने काँगड़ा किले की स्थापना की और पांडवों के खिलाफ युद्ध लड़ा।
( महाभारत में उल्लेखित)
C. 900 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
कटोच राजाओं ने ईरानी व असीरिआई आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध लड़ा और पंजाब की रक्षा की।
C. 500 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
राजनका परमानन्द चन्द्र ने सिकंदर के खिलाफ युद्ध लड़ा।
C. 275 ईसा पूर्व के दौरान कटोच वंश का उल्लेख
कटोच राजाओं ने अशोक महान के खिलाफ युद्ध लड़े और मुल्तान हार गए।
C. 100 AD
काँगड़ा राजघराने ने कन्नौज के खिलाफ बहुत सारे युद्ध लड़े।
C. 470 AD
काँगड़ा के राजाओं ने हिमालय पर प्रभुत्व ज़माने के लिए कश्मीर के राजाओं के साथ कई युद्ध किए।

C. 643 AD
Hsuan Tsang ने कांगड़ा राज्य का दौरा किया उस समय इस राज्य को जालंधर के नाम से जाना जाने लगा था।
C. 853 AD
राजनका पृथ्वी चन्द्र का राज्य अभिषेक हुआ।
C. 1009 AD
महमूद ग़ज़नी ने सन 1009 में काँगड़ा(भीमनगर)पर आक्रमण किया।इस हमले के समय जगदीशचन्द्र यहाँ के राजा थे,
C. 1170 AD
काँगड़ा राज्य जस्वान और काँगड़ा दो भागों में विभाजित हुआ। राजा पूरब चन्द्र कटोच से जस्वान राज्य पर गद्दी जमाई और कटोच वंश में जसवाल शाखा की शुरुआत हुई। कटोच और मुहम्मद घोरी के बीच में युद्ध छिड़ा जिसमे(१२२० AD) कटोच जालंधर हार गए।
C. 1341 AD
राजनका रुपचंद्र की अगुवाई में कटोचों के दिल्ली तक के इलाके पर हमला किया और लूटा। तुग़लक़ों ने डर और सम्मान में इन्हे मियां की उपाधि दी। कटोचों ने तैमूर के खिलाफ भी युद्ध लड़ा।
C. 1405 AD
काँगड़ा राज्य फिर से दो भागों में बटा और गुलेर राज्य की स्थापना हुई। गुलेर राज्य के कटोच आज के गुलेरिआ राजपूत कहलाए।
C.1450 AD
गुलेर राज्य भी दो भागों में बट गया और नए सिबा राज्य की स्थापना हुई। सिबा राज्य के कटोच सिबिया राजपूत कहलाए।
C. 1526 - 1556 AD
शेरशाह सूरी ने हमला किया पर उसकी पराजय हुई। उसके बाद अकबर ने काँगड़ा पर हमला किया जिसमे कटोच वंश कि हार हुई,कटोच राजा ने अकबर को संधि का न्योता भेजा जिसे अकबर ने स्वीकारा। बाद में मुग़लों ने काँगड़ा किले पर ५२ बार हमला किया पर हर बार उन्हें मूह की खानी पड़ी।इसके बाद जहाँगीर ने भी हमला किया,
C. 1620 AD
जहांगीर और शाहजहाँ के समय मुग़लों का काँगड़ा किले पर कब्ज़ा हुआ।
C. 1700 AD
महाराजा भीम चन्द्र ने ओरंगजेब कि हिन्दू विरोधी नीतियों के कारण गुरु गोविन्द सिंह जी के साथ औरंगज़ेब के खिलाफ युद्ध किया। गुरु गोविन्द सिंह जी ने उन्हें धरम रक्षक की उपाधि दी।पंजाब में आज भी इनकी बहादुरी के गीत गाये जाते हैं.
C. 1750 AD
महाराजा घमंडचन्द्र को अहमदशाह अब्दाली द्वारा जालंधर और ११ पहाड़ी राज्यों का निज़ाम बनाया गया।
C. 1775 AD to C. 1820 AD
काँगड़ा राज्य के लिए यह स्वर्णिम युग कहा जाता है। राजा संसारचन्द्र द्वितीय की छत्र छाँव में राज्य खुशहाली से भरा।
C. 1820 AD
काँगड़ा राज्य के पतन का समय :गोरखों ने कांगड़ा राज्य पर हमला किया,राजा संसारचंद ने सिख राजा रणजीत सिंह से मदद मांगी मगर मदद के बदले महाराजा रणजीत सिंह की सिख सेना ने काँगड़ा और सीबा के किलों पर कब्ज़ा कर लिया। सीबा का किला राजा राम सिंह ने सिखों की सेना को हरा कर दुबारा जीत लिया। सिखों के दुर्व्यवहार ने महाराजा संसारचंद को बहुत आहत किया..
* 1820 - 1846 AD
सिखों ने काँगड़ा को अंग्रेजो ( ईस्ट इंडिया कंपनी को) सौंप दिया। कटोच राजाओ ने कांगड़ा की आजादी की जंग छेडी। यह आजादी के लिए प्रथम युद्धों और संघर्षों में से था। राजा प्रमोद चन्द्र के नेतृत्व में लड़ी गयी यह जंग कटोच हार गए। राजा प्रमोद चन्द्र को अल्मोड़ा जेल में बंधी बना कर रखा गया। वहां उनकी मृत्यु हो गई।

*1924 AD
महाराजा जय चन्द्र काँगड़ा- लम्बा गाँव को महराजा की उपाधि से नवाजा गया और ११ बंदूकों की सलामी उन्हें दी जाने लगी।
*1947 AD
महाराजा ध्रुव देव चन्द्र ने काँगड़ा को भारत में मिलाने की अनुमति दी।
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=====कांगड़ा का किला======
कांगड़ा का दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है,ये दुर्ग इतना विशाल और मजबूत था की इसे देवकृत माना जाता था,इसे नगरकोट अथवा भीमनगर का दुर्ग भी कहा जाता था,कटोच राजवंश के पूर्वज सुशर्माचंद द्वारा निर्मित इस दुर्ग पर पहला हमला महमूद गजनवी ने किया,इसके बाद गौरी,तैमूर,शेरशाह सूरी,अकबर,शाहजहाँ,गोरखों,सिखों ने भी हमला किया,सदियों तक यह महान दुर्ग अपने ऐश्वर्य,आक्रमण,विनाश के बीच झूलता रहा,यह दुर्ग प्राचीन चन्द्रवंशी कटोच राजपूतों के गौरवशाली इतिहास कि गवाही देता है,
कांगड़ा का अजेय दुर्ग जिसे दुश्मन कि तोपें भी न तोड़ सकी वो सन 1905 में आये भयानक भूकम्प में धराशाई हो गया,मगर इसके खंडर आज भी चंद्रवंशी कटोच राजवंश के गौरवशाली अतीत कि याद दिलाते हैं.


राठौर राजपूत वंश की उत्पत्ति

राठोड़ राजपूतो की उत्तपति सूर्यवंशी राजा के राठ(रीढ़) से उत्तपन बालक से हुई है इस लिए ये राठोड कहलाये, राठोरो की वंशावली मे उनकी राजधानी कर्नाट और कन्नोज बतलाई गयी है! राठोड सेतराग जी के पुत्र राव सीहा जी थे! मारवाड़ के राठोड़ उन ही के वंशज है! राव सीहा जी ने करीब 700 वर्ष पूर्व द्वारिका यात्रा के दोरानमारवाड़ मे आये और राठोड वंश की नीव रखी! राव सीहा जी राठोरो के आदि पुरुष थे !
अर्वाचीन राठोड शाखाएँ
खेडेचा, महेचा , बाडमेरा , जोधा , मंडला , धांधल , बदावत , बणीरोत , चांदावत , दुदावत , मेड़तिया , चापावत , उदावत , कुम्पावत , जेतावत , करमसोत बड़ा ,करमसोत छोटा , हल सुन्डिया , पत्तावत , भादावत , पोथल , सांडावत , बाढेल , कोटेचा , जैतमालोत , खोखर , वानर , वासेचा , सुडावत , गोगादे , पुनावत ,सतावत , चाचकिया , परावत , चुंडावत , देवराज , रायपालोत , भारमलोत , बाला , कल्लावत , पोकरना . गायनेचा , शोभायत , करनोत , पपलिया , कोटडिया ,डोडिया , गहरवार , बुंदेला , रकेवार , बढ़वाल , हतुंधिया , कन्नोजिया , सींथल , ऊहड़ , धुहडिया , दनेश्वरा , बीकावत , भादावत , बिदावत आदि……
राठोड वंश
Vansh – Suryavanshi
कश्यप ऋषि के घराने में राजा बली राठोड का वंश राठोड वंश कहलाया
ऋषि वंश राठोड की उत्पत्ति सतयुग से आरम्भ होती है
वेद – यजुर्वेद
शाखा – दानेसरा
गोत्र – कश्यप
गुरु – शुक्राचार्य
देवी – नाग्नेचिया
पर्वत – मरुपात
नगारा – विरद रंणबंका
हाथी – मुकना
घोड़ा – पिला (सावकर्ण/श्यामकर्ण)
घटा – तोप तम्बू
झंडा – गगनचुम्बी
साडी – नीम की
तलवार – रण कँगण
ईष्ट – शिव का
तोप – द्न्कालु
धनुष – वान्सरी
निकाश – शोणितपुर (दानापुर)
बास – कासी, कन्नोज, कांगडा राज्य, शोणितपुर, त्रिपुरा, पाली, मंडोवर, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़,
इडर, हिम्मतनगर, रतलाम, रुलाना, सीतामऊ, झाबुबा, कुशलगढ़, बागली, जिला-मालासी, अजमेरा आदि ठिकाना दानसेरा शाखा का है
दारु मीठी दाख री, सूरां मीठी शिकार।
सेजां मीठी कामिणी, तो रण मीठी तलवार।।
व्रजदेशा चन्दन वना, मेरुपहाडा मोड़ !
गरुड़ खंगा लंका गढा, राजकुल राठौड़ !!
दारु पीवो रण चढो, राता राखो नैण।
बैरी थारा जल मरे, सुख पावे ला सैण॥
राठोड़ों की सम्पूरण खापें और उनके ठिकाने जोधा ,कोटडिया ,गोगादेव ,महेचा ,बाड़मेरा ,पोकरणा राडधरा ,उदावत,खोखर ,खावड़ीया ,कोटेचा ,उनड़, इडरिया ,
राठोड़ों की प्राचीन तेरह खापें थी | राजस्थान में आने वाले सीहाजी राठोड दानेश्वरा खाप के राठोड़ थे | सीहाजी के वंशजो से जो खांपे चली वे निम्न प्रकार है |

1. इडरिया राठोड़ :- सोनग ( पुत्र सीहा ) ने इडर पर अधिकार जमाया | अतः इडर के नाम से सोनग के वंशज इडरिया राठोड़ कहलाये |

2. हटूकिया राठोड़ :- सोनग के वंशज हस्तीकुण्डी ( हटुंडी ) में रहे | वे हटूंडीया राठोड़ कहलाये | जोधपुर इतिहास में ओझा लिखते हे की सीहाजी से पहले हटकुण्डी में राष्ट्र कूट बालाप्रसाद राज करता रहा | उसके वंशज हटूंणडीया राठोड़ हे | परन्तु हस्तीकुण्डी शासन करने वाले राष्ट्रकूटों ( चंद्रवंशी ) का कोई वंशज नजर नहीं आता है | ( दोहठ ) राठोड़ - सीहा राठोड़ के बाद कर्मशः सोनग , अभयजी , सोहीजी , मेहपाल जी , , भारमल जी , व् चूंडारावजी हुए चूंडाराव अमरकोट के सोढा राणा सोमेश्वर के भांजे थे | इनके समय मुसलमान ने जोर लगाया की अमरकोट के सोढा हमारे से बेटी व्यवहार करें | तब चूंडाराव जो उस समय अमरकोट थे | इनकी सहायता से मुसलमान की बारातें बुलाई गयी एवं स्वयं इडर से सेना लेकर पहुंचे सोढों और राठोड़ों ने मिलकर मुसलमानों की बरातों को मार दिया | उस समय वीर चूंडराव को दू:हठ की उपाधि दी गयी थे अतः चूंडराव के वंशज दोहठ कहे गए | ये राठोड़ , अमरकोट , सोराष्ट्र , कच्छ , बनास कांठा , जालोर , बाड़मेर , जैसलमेर , बीकानेर जिलों में कहीं - कहीं निवास करते रहे है |

3. बाढ़ेल ( बाढ़ेर ) राठोड़ :- सीहाजी के छोटे पुत्र अजाजी के दो पुत्र बेरावली और बीजाजी ने द्वारका के चावड़ो को बाढ़ कर ( काट कर ) द्वारका ( ओखा मंडल ) पर अपना राज्य कायम किया | इसी कारन बेरावलजी के वंशज बाढ़ेल राठोड़ हुए | आजकल ये बाढ़ेर राठोड़ कहलाते है | गुजरात में पोसीतरा , आरमंडा , बेट द्वारका बाढ़ेर राठोड़ों के ठिकाने थे |
4. बाजी राठोड़ :- बेरावल जी के भाई बीजाजी के वंशज बाजी राठोड़ कहलाये है | गुजरात में महुआ , वडाना, आदीइनके ठिकाने हे| बाजी राठोड़ आज भी गुजरात में हि बसते है |

5. खेड़ेचा राठोड़ :- सीहा के पुत्र आस्थान ने गुहिलों से खेड़ जीता | खेड़ नाम से आश्थान के वंशज खेड़ेचा राठोड़ कहलाते है |
6. धुहड़ीया राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धूहड़ के वंशज धुहड़ीया राठोड़ कहलाये |
7 . धांधल राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धांधल के वंशज धांधल राठोड़ कहलाये | पाबूजी राठोड़ इसी खांप के थे | इन्होने चारणी को दीये गए वचनानुसार पणीग्रहण संस्कार को बीच में छोड़कर चारणी के गायों को बचाने के प्रयास में शत्रु से लड़ते हुए वीर गति प्राप्त की| यही पाबुजी लोक देवता के रूप में पूजे जाते है |

8. चाचक राठोड़ : - आस्थान के पुत्र चाचक के वंशज चाचक राठोड़ कहलाये |
9 . हरखावत राठोड़ :- आस्थान के पुत्र हरखा के वंशज
10. जोलू राठोड़ :- आस्थान के पुत्र जोपसा के पुत्र जोलू के वंशज
11 . सिंधल राठोड़ :- जोपसा के पुत्र सिंधल के वंशज | ये बड़े पराक्रमी हुए | इनका जेतारण पाली पर अधिकार था | जोधा के पुत्र सूजा ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहां से हटाया |
12. उहड़ राठोड़ :- जोपसा के पुत्र उहड़ के वंशज
13 . मुलु राठोड़ :- जोपसा के पुत्र मुलु के वंशज
14 बरजोर राठोड़ :- जोपसा के पुत्र बरजोड के वंशज
15. जोरावत राठोड़ :- जोपसा के वंशज
16. रेकवाल राठोड़ :- जोपसा के पुत्र राकाजी के वंशज है | ये मल्लारपुर , बाराबकी , रामनगर , बड़नापुर , बहराईच उतरापरदेश में है |
17. बागड़ीया राठोड़ :- आस्थान जी के पुत्र जोपसा के पुत्र रैका से रैकवाल हुए | नोगासा बांसवाड़ा के ऐक स्तम्भ लेख बैसाख वदी1361 में मालूम होता हे की रामा पुत्र वीरम सवर्ग सिधारा | ओझाजी ने इसी वीरम के वंशजों को बागड़ीया राठोड़ माना है | क्यूँ की बांसवाड़ा का क्षेत्र बागड़ कहलाता था |

18. छप्पनिया राठोड़ :- मेवाड़ से सटा हुआ मारवाड़ की सीमा पर छप्पन गाँवो का क्षेत्र छप्पन का क्षेत्र है | यहाँ के राठोड़ छप्पनिया राठोड़ कहलाये | यह खांप बागदीया राठोड़ों से निकली है | उदयपुर रियासत में कणतोड़ गाँव की जागीरी थी |

19. आसल राठोड़ :- आस्थान के पुत्र आसल के वंशज आसल राठोड़ कहलाये |
20. खोपसा राठोड़ :- आस्थान के पुत्र जोपसा के पुत्र खीमसी के वंशज |
21. सिरवी राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धुहड़ के पुत्र शिवपाल के वंशज |
22. पीथड़ राठोड़ :- आस्थान के पुत्र पीथड़ के वंशज |
23. कोटेचा राठोड़ :- आस्थान के पुत्र धुहड़ के पुत्र रायपाल हुए | रायपाल के पुत्र केलण के पुत्र कोटा के वंशज कोटेचा हुए |बीकानेर जिले में करनाचंडीवाल , हरियाणा में नाथूसरी व् भूचामंडी , पंजाब में रामसरा आदी इनके गाँव है |

24. बहड़ राठोड़ :- धुहड़ के पुत्र बहड़ के वंशज |
25. उनड़ राठोड़ :- धुहड़ के पुत्र उनड़ के वंशज |
26. फिटक राठोड़ :- रायपाल के पुत्र केलण के पुत्र थांथी के पुत्र फिटक के वंशज फिटक राठोड़ हुए |
27. सुंडा राठोड़ :- रायपाल के पुत्र सुंडा के वंशज |
28 . महीपाल राठोड़ :- रायपाल के पुत्र महीपाल के पुत्र वंशज |
29. शिवराजोत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र शिवराज के वंशज |
30. डांगी :- रामपाल के पुत्र डांगी के वंशज ढोलिन से शादी की अथवा इनके वंशज ढोली हुए |
31. मोहनोत :- रायपाल के पुत्र मोहन ने ऐक महाजन की पुत्री से शादी की | इस कारन उसके वंशज मुह्नोत वेश्य कहलाये मुह्नोत नेंणसी इसी ख्यात से थे |

32. मापावत राठोड़ :- रायपाल के वंशज मापा के वंशज
33. लूका राठोड़ :- रायपाल के वंशज लूका के वंशज
34. राजक:- रायपाल के वंशज रजक के वंशज
35. विक्रमायत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र विक्रम के वंशज |
36. भोंवोत राठोड़ :- रायपाल के पुत्र भोवण के वंशज |
37. बांदर राठोड़ :- रायपाल के पुत्र कानपाल हुए | कानपाल के जालण और जालण के पुत्र छाडा के पुत्र बांदर के वंशज बांदर राठोड़ कहलाये | घड़सीसर ( बीकानेर ) राज्य बताते है |

38. ऊना राठोड़ :- रायपाल के पुत्र ऊडा के वंशज |
39. खोखर राठोड़ :- छाडा के पुत्र खोखर के वंशज | खोखर ने सांकडा , सनावड़ा आदी गाँवो पर अधिकार किया | और खोखर गाँव ( बाड़मेर ) बसाया | अलाऊधीन खिलजी ने सातल दे के समय सिवाना पर चढ़ाई की तब खोखर जी सातल दे के पक्ष में वीरता के साथ लड़े और युद्ध मे काम आये |
खोखर जिन गाँवो में रहते है :- जैसलमेर जिले में , निम्बली , कोहरा , भाडली , झिनझिनयाली , मूंगा , जेलू , खुडियाला , आस्कंद्र, भादरिया , गोपारयो, भलरीयो , जायीतरा, नदिया बड़ा , अडवाना, सांकडा ,पालवा ,सनावड़ा , खीखासरा , कस्वा चुरू - रालोत जोगलिया
बाड़मेर में - खोखर शिव , खोखर पार जोधपुर में - जुंडदिकयी, खुडियाला , खोखरी पाला , बिलाड़ा | नागोर में खोखरी पाली - बाली , गंदोग , खोखरी पाला , बिलाड़ा | विक्रमी 1788 में अहमदाबाद पर हमला किया गया | तब भी खोखारों ने नी वीरता दिखाई थी |

40. सिंहकमलोत राठोड़ :- छाडा के पुत्र सिंहमल के वंशज | अलाऊदीन के सातेलक के समय सिवाना पर चढ़ाई की थी |
41. बीठवासा उदावत राठोड़ :- रावल टीडा के पुत्र कानड़दे के पुत्र रावल के पुत्र त्रिभवन के पुत्र उदा की बीठवास जागीर में था |अतः उदा के वंशज बीठवासिया उदावत कहलाये | उदाजी के पुत्र बीरम जी बीकानेर रियासत के साहुवे गाँव से आये | जोधाजी ने उनको बीठवसिया गाँव के जागीर दी | इस गाँव के आलावा वेग्डीयो और धुनाड़ीया गाँव भी इनकी जागीरी में थे |
42. सलखावत राठोड़ :- छाडा के पुत्र टीडा के पुत्र सलखा के वंशज सल्खावत राठोड़ कहलाये
43. जैतमालोत :- सलखा के पुत्र जैतमाल के वंशज जैत्मालोत राठोड़ कहलाये |बीकानेर में कहीं कहीं निवास करते है |
44. जूजाणीया :- जैतमाल के पुत्र खेतसी के वंशज है | गाँव थापाणा इनकी जागीर में था |
45.राड़धरा राठोड़ :- जैतमाल के पुत्र खिंया ने राड़धरा पर अधिकार किया | अतः इनके वंशज राड़धरा कहलाये |

46 . महेचा राठोड़ :- सलखा राठोड़ के पुत्र मल्लिनाथ बड़े प्रसिद्ध हुए | बाड़मेर का महेवा क्षेत्र सलखा के पिता टीडा के अधिकार में था | विक्रमी संवत 1414 में मुस्लिम सेना का आक्रमण हुआ | सलखा को केद कर लिया गया | केद से छूटने के बाद विक्रमी संवत14२२ में आपने श्वसुर राणा रूपसी पड़िहार की सहायता से महेवा को वापिस जीत लिया | विक्रमी संवत 1430 में मुसलमानों का फिर आक्रमण हुआ | सलखा ने वीर गति पायी |सलखा के स्थान पर ( माला ) मल्लिनाथ राज्य का स्वामी हुआ | इन्होने मुसलमानों से सिवाना का किला जीता और अपने आपने छोटे भाई जैतमाल को दे दिया | व् छोटे भाई वीरम को खेड़ की जागीरी दे दी| नगर व् भिरड़ गढ़ के किले भी मल्लिनाथ ने अधिकार में किये | मलिनाथ शक्ति संचय कर राठोड़ राज्य का विस्तार करने और हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने पर तुले रहे | उन्होंने मुसलमानों के आक्रमण को विफल किया | मल्लिनाथ और उनकी राणी रुपादें , नाथ संप्रदाय में दिक्सीत हुए और ये दोनों सिद्ध माने गए | मल्लिनाथ के जीवन काल में हि उनके पुत्र जगमाल को गादी मिल गयी |जगमाल भी बड़े वीर थे | गुजरात का सुल्तान तीज पर इक्कठी हुयी लड़कियों को हर ले गया | तब जगमाल अपने योधाओं के साथ गुजरात गए और सुल्तान की पुत्री गीन्दोली का हरण कर लाया तब राठोड़ों और मुसलमानों में युद्ध हुआ | इस युद्ध में जगमाल ने बड़ी वीरता दिखाई | कहा जाता हे की सुल्तान के बीबी को तो युद्ध में जगह - जगह जगमाल हि दिखयी दिया

प्रस्तुत दोहा
पग पग नेजा पाड़ीया , पग -पग पाड़ी ढाल|
बीबी पूछे खान ने , जंग किता जगमाल ||
इन्ही जगमाल का महेवा पर अधिकार था | इस कारन इनके वंशज महेचा कहलाते है |
जोधपुर परगने में थोब , देहुरिया , पादरडी, नोहरो आदी इनके ठिकाने है | उदयपुर रियासत में नीबड़ी व् केलवा इनकी जागीर में थे| उनकी ख्याते निम्न है

1. पातावत महेचा :- जगमाल के पुत्र रावल मंडलीक के बाद कर्मश भोजराज , बीदा, नीसल , हापा , मेघराज व् पताजी हुए | इन्ही के वंशज पातावत कहलाये जालोर और सिरोही में इनके कई गाँव है |
2. कलावत महेचा :- मेघराज के पुत्र कल्ला के वंशज
3. दूदावत महेचा :- मेघराज के पुत्र दूदा के वंशज
4. उगा :- वरसिंह के पुत्र उगा के वंशज
47 . बाड़मेरा :- मल्लिनाथ के छोटे पुत्र अरड़कमल ने बाड़मेर इलाके नाम से इनके वंशज बाड़मेरा राठोड़ कहलाये | इनके वंशज बाड़मेर में और कई गाँवो में रहते है
48. पोकरणा :- मल्लिनाथ के पुत्र जगमाल के जिन वंशजो का पोकरण इलाके में निवास हुआ | वे पोकरणा राठोड़ कहलाये इनके गाँव सांकडा , सनावड़,लूना , चौक , मोडरड़ी , गुडी आदी जैसलमेर में है
49.खाबड़ीया :- मल्लिनाथ के पुत्र जगमाल के पुत्र भारमल हुए | भारमल के पुत्र खीमुं के पुत्र नोधक के वंशज जामनगर के दीवान रहे इनके वंशज कच्छ में है | भारमल के दुसरे पुत्र माँढण के वंशज माडवी कच्छ में रहते है वंशज खाबड़ गुजरात के इलाके के नाम से खाबड़ीया कहलाये | इनके गाँव कुछ राजस्थान के बाड़मेर में रेडाणा और देदड़ीयार है कुछ घर पाकिस्तान में भी है
50. कोटड़ीया :- जगमाल के पुत्र कुंपा ने कोटड़ा पर अधिकार किया अतः कुंपा के वंशज कोटड़ीया राठोड़ कहलाये | जगमाल के पुत्र खींव्सी के वंशज भी कोटड़ीया कहलाये इनके गाँव बाड़मेर में , कोटड़ा , बलाई , भिंयाड़ इत्यादि है |
51. गोगादे :- सलखा के पुत्र वीरम के पुत्र गोगा के वंशज गोगादे राठोड़ कहलाये | केतु ( चार गाँव ) सेखला ( 15 गाँव ) खिराज ,गड़ा आदी इनके ठिकाने है

52 . देवराजोत :- बीरम के पुत्र देवराज के वंशज देवराजोत राठोड़ कहलाये | सेतरावो इनका मुख्या ठिकाना है | इसके आलावा सुवालिया आदी ठिकाने थे |
53. चाड़देवोत :- वीरम के पुत्र व् देवराज के पुत्र चाड़दे के वंशज चाड़देवोत राठोड़ कहलाये | जोधपुर परगने का देचू इनका मुख्या ठिकाना था | गीलाकोर में भी इनकी जागीरी थी |
54. जेसिधंदे :- वीरम के पुत्र जैतसिंह के वंशज
55. सतावत :- चुंडा वीरमदेवोत के पुत्र सता के वंशज
56. भींवोत :- चुंडा के पुत्र भींव के वंशज | खाराबेरा जोधपुर इनका ठिकाना था |
57. अरड़कमलोत:- चुंडा के पुत्र अरड़कमलोत वीर थे | राठोड़ों और भाटियों के शत्रुता के कारन शार्दुल भाटी जब कोडमदे मोहिल से शादी कर लोट रहा था | तब अरड़कमल ने रास्ते में युद्ध के लिए ललकारा और युद्ध में दोनों हि वीरता से लड़े शार्दुल भाटी वीरगति प्राप्त हुए और राणी कोडमदे सती हुयी | अरड़कमल भी उन घावों से कुछ दिनों बाद मर गए | इस अरड़कमल के वंशज अरड़कमल राठोड़ कहलाये |

58. रणधीरोत :- चुंडा के पुत्र रणधीर के वंशज है फेफाना इनकी जागीर थी |
59. अर्जुनोत :- राव चुंडा के पुत्र अर्जुन के वंशज |
60. कानावत :- चुंडा के पुत्र कान्हा के वंशज |
61. पूनावत :- चुंडा के पुत्र पूनपाल के वंशज है | गाँव खुदीयास इनकी जागीरी में था |

62 , जैतावत राठोड़ :- राव रणमलजी के ज्येष्ठ पुत्र अखेराज थे | इनके दो पुत्र पंचायण व् महाराज हुए | पंचायण के पुत्र जैतावत कहलाये | राठोड़ों ने जब मेवाड़ के कुम्भा से मंडोर वापिस लिया उस समय अखेराज जी ने अपना अंगूठा चीरकर खून से जोधा का तिलक किया और कहा आपको मंडोर मुबारक हो |उतर में जोधाजी ने कहा आपको बगड़ी मुबारक हो | उस समय बगड़ी (सोजत परगना )मेवाड़ से छीन लिया और बगड़ी अखेराज को प्रदान कर दी तब से यह रीती चली आई थी की जब भी जोधपुर के राजा का राजतिलक बगड़ी का ठाकुर अंगूठे के खून से राजतिलक होता |और बगड़ी ऐक बार पुनः उन्हें दी जाती |अखेराज के पोत्र जैताजी बड़े वीर थे | विक्रमी संवत 1600 में हुए सुमेल के युद्ध में शेरसाह से चालाकी से मालदेव आपने पक्ष के योधाओं को लेकर पलायन कर गए थे | परन्तु जैताजी और कुंपा जी ने अदभुत पराक्रम दिखाते हुए शेरशाह की सेना का मुकाबला किया | दोनों द्वारा अनेको शत्रुओं को धरा शाही कर वीरगति पाने पर शेरशाह उनकी मृत देह को देखकर दंग रह गया था | जैतावत ने समय समय पर मारवाड़ की रक्षा और राठोड़ों की आन के लिए रणभूमि में तलवारें बजायी थी | मारवाड़ में इनका प्रमुख ठिकाना बगड़ी था तथा दूसरा खोखरा| दोनों ठिकानो को हाथ का कुरव और ताज्मी का सम्मान प्राप्त था |

1. पिरथीराजोत जैतावत :-जैताजी के पुत्र प्रथ्वीराज के वंशज कहलाये | बगड़ी मारवाड़ और सोजत खोखरो , बाली इनके ठिकाने रहे |
2. आसकरनोत जैतावत :- जैताजी के पोत्र आसकरण देईदानोत के वंशज आसकरनोत जैतावत है | मारवाड़ में थावला , आलासण, रायरो बड़ो, सदा मणी, लाबोड़ी , मुरढावों , आदी ठिकाने इनके थे |
3. भोपपोत जैतावत :- जैताजी के पुत्र देई दानजी के पुत्र भोपत के वंशज भोपपोत जैतावत कहलाते है | मारवाड़ में खांडो देवल ,रामसिंह को गुडो आदी ठिकाने इनके है |

63. कलावत राठोड़ :- राव रिड़मल के पुत्र अखेराज इनके पुत्र पंचारण के पुत्र कला के वंशज कलावत राठोड़ कहलाये | कलावत राठोड़ों के मारवाड़ में हूँण व् जाढण दो गाँवो के ठिकाने थे |

64. भदावत:- राव रणमल के पुत्र अखेराज के बाद क्रमश पंचायत व् भदा हुए | इन्ही भदा के वंशज भदावत राठोड़ कहलाये | देछु जालोर के पास तथा खाबल व् गुडा सोजत के पास के मुख्या ठिकाने थे |
65. कुम्पावत :- मंडोर के रणमल जी के पुत्र अखेराज के दों पुत्र पंचायण व् महाराज हए |महाराज के पुत्र कुम्पा के वंशज कुंपावत राठोड़ कहलाये | मारवाड़ का राज्य ज़माने में कुम्पा व् पंचायण के पुत्र जेता का महत्व पूरण योगदान रहा था | चितोड़ से बनवीर को हटाने में भी कुंपा की महत्वपूरण भूमिका थी | मालदेव ने वीरम का जब मेड़ता से हटाना चाहा , कुम्पा ने मालदेव का पूरण साथ लेकर इन्होने अपना पूरण योग दिया | मालदेव ने वीरम से डीडवाना छीना तो कुंपा को डीडवाना मिला | मालदेव की 1598 विक्रमी में बीकानेर विजय करने में कुंपा की महत्वपूरण भूमिका थी | शेरशाह ने जब मालदेव पर आक्रमण किया और मालदेव को अपने सरदारों पर अविश्वास हुआ तो उन्होंने अपने साथियों सहित युद्ध भूमि छोड़ दी परन्तु जेता व् कुम्पा ने कहा धरती हमारे बाप की दादाओं के शोर्य से प्राप्त हुयी है | हम जीवीत रहते उसे जाने नहीं देंगे | दोनों वीरों ने शेरशाह की सेना से टक्कर ली अद्भुत शोर्य दिखाते हुए मात्रभूमि की रक्षार्थ बलिदान हो गए | उनकी बहादुरी से प्रभावित होकर शेरशाह के मुख से यह शब्द निकले पड़े ' मेने मुठ्ठी भर बाजरे के लिए दिल्ली सलतनत खो दी थी | यह युद्ध सुमेल के पास चेत्र सुदी ५ विक्रमी संवत 1600 इसवी संवत 1544 में हुआ | कुंपा के 8 पुत्र थे | माँडण को अकबर ने आसोप की जागीरी डी थी | आसोप कुरव कायदे में प्रथम श्रेणी का ठिकाना था |दुसरे पुत्र प्रथ्वीराज सुमेल युद्ध में मारे गए थे | उनके पुत्र महासिंह को बतालिया व् ईशरदास को चंडावल आदी के ठिकाने मिले थे |रामसिंह सुमेल युद्ध में मारे गए थे | उनके वंशजों को वचकला ठिकाना मिला | उनके पुत्र प्रताप सिंह भी सुमेल युद्ध में मारे गए |

मांडण के पुत्र खीवकर्ण ने कई युद्ध में भाग लिया वे बादशाह अकबर के मनसबदार थे | सूरसिंह जोधपुर के साथ दक्षिण के युधों में लड़े और बूंदी के साथ हुए युद्ध में काम आये |

इनके पुत्र किशनसिंह ने गजसिंह जोधपुर के साथ कई युध्दों में भाग लिया किशन सिंह ने शाहजहाँ के समुक्ख लिहत्थे नाहर को मारा |अतः ईनका नाम नाहर खां भी हुआ | विक्रमी संवत 1737 में नाहर खां ने पुष्कर में वराह मंदिर पर हमला किया | 6 अन्य कुम्पाव्तों सहित नाहर खां के पुत्र सूरज मल वहीँ काम आये | सूरज मल जी के छोटे भाई जैतसिंह दक्षिण के युद्ध में विक्रमी 1724 में काम आये| आसोप के महेशदासजी अनेक युद्धों में लड़े और मेड़ता युध्द में वीर गति पायी |

1. महेशदासोत कुम्पावत:- विक्रमी संवत 1641 में बादशाह ने सिरोही के राजा सुरतान को दंड देने मोटे राजा उदयसिंह को भेजा |इस युध् में महेशदास के पुत्र शार्दूलसिंह ने अद्भुत पराक्रम दिखाया और वहीँ रणखेत में रहे | अतः उनके वंशज भावसिंह को 1702विक्रमी में कटवालिया के अलावा सिरयारी बड़ी भी उनका ठिकाना था | ऐक ऐक गाँव के भी काफी ठिकाने थे |
2. इश्वरदासोत कुंपावत :- कुंपा के पुत्र इश्वरदास के वंशज कहलाये | इनका मुख्या ठिकाना चंडावल था | यह हाथ कुरब का ठिकाना था | इश्वरदास के वंशज चाँद सिंह को महाराजा सूरसिंह ने 1652 विक्रमी में प्रदान किया था | 1658 ईस्वी के धरमत के युद्ध में चांदसिंह के पुत्र गोर्धनदास युद्ध में घोड़ा उठाकर शत्रुओं को मार गिराया और स्वयं भी काम आये | इस ठिकाने के नीचे 8अन्य गाँव थे | राजोसी खुर्द , माटो ,सुकेलाव इनके ऐक ऐक गाँव ठिकाने है |
3. मांडनोत कुम्पावत:- कुम्पाजी के बड़े पुत्र मांडण के वंशज माँडनोत कहलाये | इनका मुख्या ठिकाना चांदेलाव था | जिसको माँडण के वंशज छत्र सिंह को विजय सिंह ने इनायत किया | इनका दूसरा ठिकाना रुपाथल था | जगराम सिंह को विक्रमी में गजसिंह पूरा का ठिकाना भी मिला | 1893 में वासणी का ठिकाना मानसिंह ने इनायत किया | लाडसर भी इनका ठिकाना था | यहाँ के रघुनाथ सिंह , अभयसिंह द्वारा बीकानेर पर आक्रमण करने के समय हरावल में काम आये | जोधपुर रियासत में आसोप , गारासणी ,सर्गियो , मीठड़ी आदी , इनके बड़े ठिकाने थे |

4. जोधसिंहोत कुम्पावत:- कुम्पाजी के बाद क्रमश माँडण , खीवकण , किशनसिंह , मुकुन्दसिंह , जैतसिंह , रामसिंह , व् सरदारसिंह हुए |सरदार सिंह के पुत्र जोधसिंह ने महाराजा अभयसिंह जोधपुर की तरह अहमदाबाद के युद्ध में अच्छी वीरता दिखाई | महराजा ने जोधसिंह को गारासण खेड़ा, झबरक्या और कुम्भारा इनायत दिया |इनके वंशज कहलाये जोधसिन्होत

5.महासिंह कुम्पावत :- कुम्पाजी के पुत्र महासिंह के वंशज महासिंहोत कहलाते है \ महाराजा अजीतसिंह ने हठ सिंह फ़तेह सिंह को सिरयारी का ठिकाना इनायत दिया | 1847 विक्रमी में सिरयारी के केशरी सिंह मेड़ता युद्ध में काम आये | सिरयारी पांच गाँवो का ठिकाना था |

6. उदयसिंहोत कुंपावत :- कुम्पाजी के चोथे पुत्र उदयसिंह के वंशज उदयसिंहोत कुम्पावत कहलाते है | उदयसिंह के वंशज छतरसिंह को विक्रमी 1831 में बूसी का ठिकाना मिला | विक्रमी संवत 1715 के धरमत के युद्ध में उदयसिंह के वंशज कल्याण सिंह घोड़ा आगे बढाकर तलवारों की रीढ़ के ऊपर घुसे और वीरता दिखाते हुए काम आये | यह कुरब बापसाहब का ठिकाना था |चेलावास ,मलसा , बावड़ी , हापत, सीहास, रढावाल , मोड़ी ,आदी ठिकाने छोटे ठिकाने थे |
7.तिलोकसिन्होत कुम्पावत:- कूम्पा के सबसे छोटे पुत्र तिलोक सिंह के वंशज तिलोकसिन्होत कूम्पावत कहलाये | तिलोकसिंह ने सूरसिंह जोधपुर की तरह से किशनगढ़ के युद्ध में वीरगति प्राप्त की | इस कारन तिलोक सिंह के पुत्र भीमसिंह को घणला का ठिकाना सूरसिंह जोधपुर ने विक्रमी 1654 में इनायत किया |

66. जोधा राठोड़ :- राव रिड़मल के पुत्र जोधा के वंशज जोधा राठोड़ कहलाये | जोधा राठोड़ों की निम्न खांप है |
1. बरसिन्होत जोधा :- जोधा की सोनगरी राणी के पुत्र बरसिंह के वंशज बरसिन्होत जोधा कहलाये |बरसिंह अपने भाई दुदा के साथ मेड़ते रहे | परन्तु मुसलमानों ने उन्हें मेड़ते से निकाल दिया | मालवा के झबुवा में बरसिन्होत जोधा राठोड़ों का राज्य था |
2. रामावत जोधा :- जोधपुर के शासक जोधा के बाद क्रमश बरसिंह आसकरण हुए | आसकरण के पोत्र रामसिंह ने बांसवाड़ा की गद्दी के लिए चौहानों और राठोड़ों के बीच युद्ध विक्रमी 1688 में वीरता तथा वीरगति को प्राप्त हुए | रामसिंह के तेरह पुत्र थे | जो रामावत राठोड़ कहलाये | रामसिंह के तीसरे पुत्र जसवंतसिंह के जयेष्ट पुत्र अमरसिंह को साठ गाँवो सहित खेड़ा की जागीरी मिली तो रतलाम राज्य में था | यह अंग्रेजी सरकार द्वार कुशलगढ़ बांसवाडा के नीचे कर दिया गया | विक्रमी संवत 1926 में कुशलगढ़ बांसवाडा के नीचे कर दिया |
3. भारमलोत जोधा :- जोधा की हूलणी राणी के पुत्र भारमल के वंशज भारमलोत जोधा कहलाये | इनके वंशज झाबुआ राज्य में निवास करते है |
4. शिवराजोत जोधा :- जोधा की बघेली राणी के पुत्र शिवराज


गौड़ क्षत्रिय राजवंश

गौड़ क्षत्रिय भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत के वंशज हैं। ये विशुद्ध सूर्यवंशी कुल के हैं। जब श्रीराम अयोध्या के सम्राट बने तब महाराज भरत को गंधार प्रदेश का स्वामी बनाया गया। महाराज भरत के दो बेटे हुये तक्ष एवं पुष्कल जिन्होंने क्रमशः प्रसिद्द नगरी तक्षशिला (सुप्रसिद्ध विश्वविधालय) एवं पुष्कलावती बसाई (जो अब पेशावर है)। एक किंवदंती के अनुसार गंधार का अपभ्रंश गौर हो गया जो आगे चलकर राजस्थान में स्थानीय भाषा के प्रभाव में आकर गौड़ हो गया। महाभारत काल में इस वंश का राजा जयद्रथ था। कालांतर में सिंहद्वित्य तथा लक्ष्मनाद्वित्य दो प्रतापी राजा हुये जिन्होंने अपना राज्य गंधार से राजस्थान तथा कुरुक्षेत्र तक विस्तृत कर लिया था। पूज्य गोपीचंद जो सम्राट विक्रमादित्य तथा भृतहरि के भांजे थे इसी वंश के थे। बाद में इस वंश के क्षत्रिय बंगाल चले गए जिसे गौड़ बंगाल कहा जाने लगा। आज भी गौड़ राजपूतों की कुल देवी महाकाली का प्राचीनतम मंदिर बंगाल में है जो अब बंगलादेश में चला गया है।

बंगाल के गौड़

बंगाल में गौड़ राजपूतों का लम्बे समय तक शासन रहा। चीनी यात्री ह्वेन्शांग के अनुसार शशांक गौड़ की राजधानी कर्ण-सुवर्ण थी जो वर्तमान में झारखण्ड के सिंहभूमि के अंतर्गत आता है। इससे पता चलता है कि गौड़ साम्राज्य बंगाल (वर्तमान बंगलादेश समेत) कामरूप (असाम) झारखण्ड सहित मगध तक विस्तृत था। गौड़ वंश के प्रभाव के कारण ही इस क्षेत्र को गौड़ बंगाल कहा जाने लगा । शशांक गौड़ इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था जो सम्राट हर्षवर्धन का समकालीन था तथा सम्पूर्ण भारत वर्ष पर शासन करने की तीव्र महत्वकांक्षा रखता था। शशांक गौड़ ने हर्षवर्धन के भाई प्रभाकरवर्धन का वध किया था। इसके बाद एक युद्ध में हर्षवर्धन ने शशांक गौड़ को पराजित किया और उसकी महत्वकांक्षाओं को बंगाल तक ही सीमित कर दिया। शशांक गौड़ के बाद इस वंश का पतन हो गया। बाद में इसी वंश के किसी क्षत्रिय ने गौड़ बंगाल में समृद्ध एवं शक्तिशाली पालवंश की नींव रखी। पाल वंश के अनेक शिलालेखों तथा अन्य दस्तावेजों से प्रमाणित होता है कि ये विशुद्ध सूर्यवंशी थे। लेकिन बोद्ध धर्म को प्रश्रय देने के कारण ब्राह्मणवादियों ने चन्द्रगुप्त तथा अशोक महान की तरह इन्हें भी शुद्र घोषित करने का प्रयास किया है। सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत कई राज्यों में बंट गया और अगले 100 वर्षों तक कन्नौज पर अधिपत्य के विभिन्न क्षत्रिय राजाओं के बीच संघर्ष होता रहा क्यूंकि मगध के पतन के बाद भारतवर्ष का नया सत्ता शीर्ष कन्नौज बन चूका था तथा कन्नौज अधिपति ही देश का सम्राट कहलाता था। कन्नौज के लिए हुये इस संघर्ष में शामिल तत्कालीन भारत के प्रमुख तीन राजवंशों में गुर्जर प्रतिहार, राष्ट्रकूट के अलावा बंगाल का पाल वंश(गौड़) था। उस समय चोथी शक्ति के रूप में बादामी के चालुक्य (सोलंकी) तेजी से उभर रहे थे। पाल वंश के पतन के बाद पर्शियन आक्रान्ता बख्तियार खिलजी ने जब बंगाल पर हमले किये और उसे तहस नहस कर दिया तब गौड़ राजपूतों का बड़ी संख्या में बंगाल से राजस्थान की तरफ पलायन हुआ।

राजस्थान में गौड़ राजपूत
राजस्थान में गौड़ प्राचीन काल से ही रहते आये है, मारवाड़ क्षेत्र में एक क्षेत्र आज भी गौड़वाड़ व गौड़ाटी कहलाता है, जो कभी गौड़ राजपूतों के अधिकार क्षेत्र में रहा और वहां वे निवास करते थे। राजपूत वंशावली के अनुसार सबसे पहले सीताराम गौड़ बंगाल से राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में आये। यही से बाहरदेव व नाहरदेव दो गौड़ कन्नौज सम्राट नागभट्ट द्वितीय के पास पहुंचे। जिनको नागभट्ट ने कालपी व नार (कानपुर) क्षेत्र जागीर में दिया। इन्हीं के वंशज आज उत्तर प्रदेश के इटावा बदायूं, कन्नौज, मोरादाबाद अलीगढ में निवास करते हैं। नार क्षेत्र में आगे की पीढ़ियों में हुये वत्सराज, वामन व सूरसेन नामक गौड़ वि.स. 1206 में पुष्कर तीर्थ स्नान हेतु राजस्थान आये। उस समय दहिया राजपूत अजमेर में चैहानों के सामंत थे। जिन्होंने चैहानों से विद्रोह कर रखा था.। तत्कालीन चैहान शासक विग्रहराज तृतीय ने विद्रोह दबाने गौड़ों को भेजा। गौड़ों ने दहियाओं का विद्रोह दबा दिया तब प्रसन्न होकर चैहान शासक ने इनको केकड़ी, जूनियां, देवलिया और सरवाड़ के परगने जागीर में दिये। वत्सराज के अधिकार में केकड़ी, जूनियां, सरवाड़ व देवलिया के परगने रहे वहीं वामन के अधिकार में मोठड़ी, मारोठ परगना रहा। महान राजपूत सम्राट पृथ्वीराज चैहान के कई प्रसिद्ध गौड़ सामंत थे। जिनमें रण सिंह गौड़ तथा बुलंदशहर का राजा रणवीर सिंह गौड़ प्रमुख थे। पृथ्वीराज रासो में और भी कई गौड़ सामंतों का जिक्र आता है। चंदरबरदाई ने गौडों की प्रशंसा में लिखा है

‘‘बलहट बांका देवड़ा, करतब बांका गौड़
हाडा बांका गाढ़ में, रण बांका राठौड़।’’

वहीं कर्नल टॉड ने लिखा है कि गौड़ राजपूत अपने समय के सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार थे। टॉड के अनुसार एक समय इस जाति का राजस्थान में अत्यंत सम्मान था, जो बाद में धीरे धीरे समाप्त हो गया। पृथ्वीराज चैहान की हार के बाद राजस्थान में गौडों की शक्ति भी क्षीण हो गयी। बाद में शाहजहाँ के समय में गोपालदास गौड़ के नेतृत्व में गौडों ने राजस्थान में फिर से एक ऊँचा मुकाम हासिल किया। शहजादा खुर्रम को मुग़ल सम्राट शाहजहाँ बनाने में गोपालदास गौड़ का विशेष योगदान था। गोपालदास गौड़ की कूटनीति तथा सही योजनाओं के कारण ही खुर्रम बादशाह जहाँगीर को अप्रिय होने के बाद भी हिंदुस्तान का सम्राट बन सका। शाहजहाँ ने भी गौड़ राजपूतों को मुगल दरबार में कछवाहों तथा राठौड़ों के समकक्ष जागीरें एवं मनसब दिये। शाहजहाँ के बाद गौड़ राजपूतों ने ओरंगजेब का साथ देना उचित ना समझा । धर्मात के युद्ध में शाहजहाँ की तरफ से जोधपुर नरेश जसवंत सिंह के नेतृत्व में गौड़ राजपूत ओरंगजेब के विरुद्ध लडे । जगभान गौड़ इसमें वीरगति को प्राप्त हुये ।

अजमेर क्षेत्र के गौड़ : वत्सराज के वंशजों में गोपालदास बूंदी चले गये, जहाँ बूंदी शासक हाडा भोज ने उसे लाखेरी की जागीर दी। गोपालदास खुर्रम के साथ दक्षिण को गया, जब खुर्रम ने थट्टा का घेरा डाला तब गोपालदास अपने 17 पुत्रों सहित युद्ध में लड़े और वीरगति को प्राप्त हुये। खुर्रम जब शाहजहाँ के नाम से बादशाह बना तब गोपालदास के पुत्र विट्ठलदास को तीन हजार जात और पन्द्रह सौ सवार का मंसब दिया। विट्ठलदास रणथंभोर व आगरा किले का दुर्गाध्यक्ष भी रहा व कंधार के युद्धों में भी भाग लिया। विट्ठलदास के एक पुत्र अर्जुन के पास अजमेर के निकट राजगढ़ जागीर में था। इसी अर्जुन के हाथों इतिहास प्रसिद्ध वीर अमरसिंह राठौड़ मारे गये थे। अर्जुन के एक भाई के पास सवाई माधोपुर के पास बौल परगना था।

मारोठ क्षेत्र के गौड़ : मारोठ व मोठड़ी के जागीरदार वामन के पौत्र मोटेराव कुचामन के व जालिम सिंह मारोठ के स्वामी बने। इस क्षेत्र में गौड़ों ने अपना प्रभाव बढाया व राज्य विस्तार किया। गौड़ों द्वारा शासित होने के कारण आज भी यह प्रदेश गौड़ाटी के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ के गौड़ों ने आमेर राज्य से भी युद्ध किया था। 16 वीं सदी की शुरुआत में रिड़मल गौड़ मारोठ के शासक हुये, जो क्षेत्र के गौड़ शासकों के पाटवी नेता थे। घाटवा के नजदीक कोलोलाव तालाब पर राव शेखा द्वारा कोलराज गौड़ की हत्या के बाद गौड़ों के निकट संबंधी राव शेखा से 12 लड़ाइयाँ हुई। बारहवीं लड़ाई पूरी गौड़ शक्ति एकत्र कर मारोठ के अनुभवी शासक रिड़मल के नेतृत्व में लड़ी गई और रिडमल को राव शेखा के पुत्र रायमल से संधि करनी पड़ी। ज्ञात हो शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक राव शेखा इसी युद्ध में, जो घाटवा युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है, विजय के उपरांत ज्यादा घायल होने के चलते वीरगति को प्राप्त हुये थे। इस संधि में रिड़मल ने अपनी पुत्री का विवाह राव शेखा के प्रपोत्र लूणकर्ण के साथ किया और कई गांव भी दिये।

शाहजहाँ के काल में गौड़ों का शाहजहाँ से अच्छा संबंध रहा और वे दिल्ली दरबार में प्रभावशाली रहे, लेकिन औरंगजेब के काल में मारोठ के गौड़ों की स्थिति दिल्ली दरबार में कमजोर रही। इसी कमजोर स्थिति का फायदा उठाते हुये रघुनाथ सिंह मेड़तिया ने गौड़ों से मारोठ छीन लिया और औरंगजेब ने भी मारोठ का परगना रघुनाथसिंह मेड़तिया के नाम कर उसे स्वीकृति दे दी। लेकिन फिर भी पहले से अपेक्षाकृत कमजोर हो चुके गौडों को हराना रघुनाथ सिंह मेड़तिया के लिए संभव ना था । रघुनाथ सिंह मेड़तिया ने इसके लिए अपने सम्बन्धियों कछवाहों का साथ लिया तब जाकर गौडों को पराजित किया जा सका। मारोठ क्षेत्र से ही कुछ गौड़ अलवर, झुंझुनू व अन्य जगह चले गये। मारोठ से गये इन गौड़ों को मारोठिया गौड़ों के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थान के इस क्षेत्र में कभी शासक रहे इस वीर राजपूत वंश के स्थानीय इतिहास की काफी सामग्री उपलब्ध है जिस पर और गहन शोध की आवश्यक्ता है । अपने पड़ौसी शेखावत और राठौड़ राजपूतों से इनके वैवाहिक संबंध थे, जिसकी जानकारियां भी इतिहास में प्रचुर मात्रा में मिलती है।

खापें
गौड़ राजपूत वंश की कई उपशाखाएँ (खापें) है जैसे- अजमेरा गौड़, मारोठिया गौड़, बलभद्रोत गौड़, ब्रह्म गौड़, चमर गौड़, भट्ट गौड़, गौड़हर, वैद्य गौड़, सुकेत गौड़, पिपारिया गौड़, अभेराजोत, किशनावत, चतुर्भुजोत, पथुमनोत, विबलोत, भाकरसिंहोत, भातसिंहोत, मनहरद सोत, मुरारीदासोत, लवणावत, विनयरावोत, उटाहिर, उनाय, कथेरिया, केलवाणा, खगसेनी, जरैया, तूर, दूसेना, घोराणा, उदयदासोत, नागमली, अजीतमली, बोदाना, सिलहाला आदि खापें है जो उनके निकास स्थल व पूर्वजों के नाम से प्रचलित है।

उत्तर प्रदेश में गौड़ राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से बाहरदेव व नाहरदेव दो गौड़ भाई कन्नौज सम्राट नागभट्ट द्वितीय के पास पहुंचे। जिनको नागभट्ट ने कालपी व नार (कानपुर) क्षेत्र जागीर में दिया। इन्हीं के ही वंशज आज उत्तर प्रदेश के कानपुर, एटा, इटावा, गोरखपुर बदायूं, मोरादाबाद तथा अलीगढ में निवास करते हैं।
नार के राजा पृथ्वीदेव गौड़ का विवाह महाराज गोपीचंद राठौड़ की बहिन से हुआ था। जब पृथ्वीदेव एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ तो गोपीचंद राठौड़ ने अपने भांजों को बुला कर उन्हें अमेठी (कानपूर) का शासक बना दिया। राजा कान्ह्देव के ये वंशज अमेठिया गौड़ कहलाये। ये अमेठी लखनऊ, सीतापुर जिलों में बसते हैं।
बंगाल से ही एक शाखा मथुरा आयी। दिल्ली सम्राट अनंगपाल तंवर के सेनापति दो गौड़ सगे भाई सूर और घोट थे। इन्होंने वर्तमान बिलराम (मथुरा) को जीता।

पवायन रियासत 1705 में राजा उदयसिंह गौड़ ने रूहिल्ला पठानों को पराजित कर रोहिलखंड उत्तरप्रदेश (महाभारतकालीन पंचाल प्रदेश) में सबसे बड़ी राजपूत रियासत पवायन (जिला शाहजहांपुर) की स्थापना की। जिसका शासन 1947 तक कायम रहा। यहाँ के शासक को राजा की उपाधि धारण करने का अधिकार रहा है।
बुलंदशहर में बसने वाले गौडों के पूर्वज राजस्थान से आये दो भाई थे जिला बिजनोर में भी गौड़ राजपूत बसते हैं। यहाँ मुकुटसिंह शेखावत के नेतृत्व में सोमवती अमावस्य पर गंगा स्नान करने राजस्थान से आये 12 राजाओं ने जिनमें बलभद्रसिंह गौड़ और बुद्धसिंह गौड़ भी शामिल थे, हिन्दु साधुओं की रक्षा आततायी मुस्लिम नवाब फतह उल्ला खान का वध करके की। इसके बाद इन 12 राजाओं ने 84-84 गाँव आपस में बाँट लिए और वहीं पर ही शासन करने लगे।
कानपुर से गौड़ राजपूतों का एक खानदान इलाहाबाद आ गया जो ओरछा के बुंदेलों की सेवा में था। इनके एक सामंत बिहारीसिंह गौड़ ने ओरंगजेब से बगावत की और एक युद्ध में मारे गए। इलाहबाद के डॉक्टर नरेंद्रसिंह गौर उत्तर प्रदेश सरकार में शिक्षा एवं गन्ना मंत्री भी रहे।

मध्य प्रदेश में गौड़ राजपूत
मध्यप्रदेश में शेओपुर (जिला जबलपुर) गौड़ राजपूतों का एक प्रमुख ठिकाना रहा है। 1301 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने शेओपुर पर कब्जा किया जो तब तक हमीर देव चैहान के पास था। बाद में मालवा के सुलतान का तथा शेरशाह सूरी का भी यहाँ कब्जा रहा। उसके बाद बूंदी के शासक सुरजन सिंह हाडा ने भी शेओपुर पर कब्जा किया। बाद में अकबर ने इसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया। स्वतंत्र रूप से इस राज्य की स्थापना विट्ठलदास गौड़ के पुत्र अनिरुद्ध सिंह गौड़ ने की थी। इनके आमेर का कछवाहा राजपूतों से काफी निकट के और घनिष्ट सम्बन्ध रहे। अनिरुद्ध सिंह गौड़ की पुत्री का विवाह आमेर नरेश मिर्जा राजा रामसिंह से हुआ था। सवाई राजा जयसिंह का विवाह उदयसिंह गौड़ की पुत्री आनंदकंवर से हुआ था। जिससे ज्येष्ठ पुत्र शिवसिंह पैदा हुआ।
सन 1722 में जब जयपुर नरेश सवाई राजा जयसिंह जाटों का दमन करने थुड गए थे, उस समय तत्कालीन शेओपुर नरेश इन्दरसिंह गौड़ अपनी सेना सहित उनकी मदद में उपस्थित रहे। बाद में मैराथन के विरुद्ध भी इन्द्रसिंह गौड़ जय सिंह के साथ रहे। इसके अलावा भोपाल में पेशवाओं के विरुद्ध युद्ध और जोधपुर के विरुद्ध युद्ध में भी इन्दरसिंह गौड़ सवाई राजा की मदद में रहे। इस प्रकार इन्दरसिंह गौड़ ने पूरे जीवन सवाई राजा जयसिंह का साथ दिया। बाद में सिंधियों ने गौड़ों से शेओपुर को जीत लिया।
शेओपुर का 225 साल का इतिहास गवाही है, शानदार गौड़ राजपूत वास्तुकला की। नरसिंह गौड़ का महल हो, राणी महल हो या किशोरदास गौड़ की छतरियां हों, सब अपने आप में बेमिसाल हैं। आज ये शहर मध्यप्रदेश के पर्यटन का एक प्रमुख हिस्सा है।

खांडवा के गौड़
शेओपुर के अलावा खांडवा भी मध्यप्रदेश में गौडों का एक प्रमुख ठिकाना रहा है। अजमेर साम्राज्य के सामंत राजा वत्सराज (बच्छराज) गौड़ (केकड़ी-जूनियां) के वंशज गजसिंह गौड़ और उनके भाइयों ने राजस्थान से हटकर 1485 में पूर्व निमाड़ (खांडवा) में घाटाखेड़ी नमक राज्य स्थापित किया। यह गौड़ राजपूतों का एक मजबूत ठिकाना रहा। वर्तमान में खांडवा के मोहनपुर, गोरड़िया पोखर राजपुरा प्लासी आदि गाँवों में उपरोक्त ठिकाने के वंशज बसे हुये हैं।

किंवदंती है एक गौड़ राजा के प्रताप और तप के कारण ही मध्यप्रदेश की नर्मदा नदी उलटी बहती है



राजपूत कुलदेवियाँ

1. राठौड़ नागणेचिया

2. गहलोत बाणेश्वरी माता
3. कछवाहा जमवाय माता
4. दहिया कैवाय माता
5. गोहिल बाणेश्वरी माता
6. चौहान आशापूर्णा माता
7. बुन्देला अन्नपूर्णा माता
8. भारदाज शारदा माता
9. चंदेल मेंनिया माता
10. नेवतनी अम्बिका भवानी
11. शेखावत जमवाय माता
12. चुड़ासमा अम्बा भवानी माता
13. बड़गूजर कालिका(महालक्ष्मी)माँ
14. निकुम्भ कालिका माता
15. भाटी स्वांगिया माता
16. उदमतिया कालिका माता
17. उज्जेनिया कालिका माता
18. दोगाई कालिका(सोखा)माता
19. धाकर कालिका माता
20. गर्गवंश कालिका माता
21. परमार सच्चियाय माता
22. पड़िहार चामुण्डा माता
23. सोलंकी खीवज माता


24. इन्दा चामुण्डा माता
25. जेठंवा चामुण्डा माता
26. चावड़ा चामुण्डा माता
27. गोतम चामुण्डा माता
28. यादव योगेश्वरी माता
29. कौशिक योगेश्वरी माता
30. परिहार योगेश्वरी माता
31. बिलादरिया योगेश्वरी माता
32. तंवर चिलाय माता
33. हैध्य विन्ध्यवासिनि माता
34. कलचूरी विन्धावासिनि माता
35. सेंगर विन्धावासिनि माता
36. भॉसले जगदम्बा माता
37. दाहिमा दधिमति माता
38. रावत चण्डी माता
39. लोह थम्ब चण्डी माता
40. काकतिय चण्डी माता
41. लोहतमी चण्डी माता
42. कणड़वार चण्डी माता
43. केलवाडा नंदी माता
44. हुल बाण माता
45. बनाफर शारदा माता
46. झाला शक्ति माता
47. सोमवंश महालक्ष्मी माता
48. जाडेजा आशपुरा माता
49. वाघेला अम्बाजी माता
50. सिंघेल पंखनी माता
51. निशान भगवती दुर्गा माता
52. बैस कालका माता
53. गोंड़ महाकाली माता
54. देवल सुंधा माता
55. खंगार गजानन माता
56. चंद्रवंशी गायत्री माता
57. पुरु महालक्ष्मी माता
58. जादोन कैला देवी (करोली )
59. छोकर चन्डी केलावती माता
60. नाग विजवासिन माता
61. लोहतमी चण्डी माता
62. चंदोसिया दुर्गा माता
63. सरनिहा दुर्गा माता
64. सीकरवाल दुर्गा माता
65. किनवार दुर्गा माता
66. दीक्षित दुर्गा माता
67. काकन दुर्गा माता
68. तिलोर दुर्गा माता
69. विसेन दुर्गा माता
70. निमीवंश दुर्गा माता
71. निमुडी प्रभावती माता
72. नकुम वेरीनाग बाई
73. वाला गात्रद माता
74. स्वाति कालिका माता
75. राउलजी क्षेमकल्याणी माता

Comments

  1. क्षत्रिय परमार राजपूत .धारगढ उजैणी से नीकले राजा वीर विक्रम साखे राजपूत परमार के कुल के हे,गोत्र वशिष्ठ पाराशर गोत्र कुल देवी मां हरसीध भवानी प्रसंन देवी मां महाकाली थरा मे वीर बैताल की पूजा होती ओर तलवार की धार केल का पूजन होता ,त्रीप्रवर वंश वेद यजुर्वेद कहलाता ,असल गढ आबू गढ अर्बुद गढ वहासे उज्जैण से धार गढ वहासे नीकले गढ पाटण आऐ पाटण में सोलंकी सीद्धराज के राज में काल भैरव आता उसका दुःख दुर कीया हे, जगदेव परमार ने शीश का दांन कीया वहासे नीकलके गढ मुली मे बसे वहासे मुली गढ के परमार का ऐक वंश नीकलके गढ पावागढ बसे ओर मुस्लमान ने पावागढ पर कबजा कीया चैहाण पताई के राज मे उसदीन नर्मदा तट पे आके बसे ओर आदिबासी के घर का पाणी पीया ओर तदवी साखे लगी अगले जमाने मे आदिबासी, तदवी ,वलवी,कठारीया,तेटरीया,धाणका,नाम के आदिबासी के घर का पाणी पीया ओर तदवी परमार साखा लगी, असल में साखा राजपुत परमार कुल उचा से उचा कुल है साखा तदवी परमार मुली गढ के परमार राजपूत
    ( बारोटजी भीखाभाई लक्ष्मणभाई )

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  2. Bhai saheb...bais Rajput Suryavanshi hote hain..please correct your information.

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  3. Hukum aapka Contact mil sakte hai kya, aapse marg darshan lena hai

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  4. रीवा राज्य बघेलखंड में पाए जाने वाले भगवान श्री लक्ष्मण के वंशज वर्ग्राही परिहार क्षत्रिय जिन्होंने रीवा राज्य वह बघेल वंश की रक्षा व सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दिए व रीवा राज्य की सदैव रक्षा करते रहे!

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  5. This comment has been removed by the author.

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  6. Bhai mai Upadhyay hun kya mere gotre galat h kya
    (Jagdev Panwar) likha jata h
    Batate h ki dhara nagri se aaye h shi h kya y bataye

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