रानी पद्मिनी

रानी पद्मिनी रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रतन सिंह चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठा । रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी । उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी । उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी । उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चित्तौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिकों के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेराबंदी व युद्ध के बावजूद वह चित्तौड़ के किले में घुस नहीं पाया ।

तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चित्तौड़ रतन सिंह के पास भेज संदेश भेजा कि "हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिए हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जाएंगे । सन्देश सुनकर रत्नसिंह आग बबूला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रतन सिंह को समझाया कि " मेरे कारण व्यर्थ ही चित्तौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है । " रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी । सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है ।

अलाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिकों का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।


चित्तौड़ के किले में अलाउद्दीन का स्वागत रतन सिंह ने अतिथि की तरह किया । रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था वह दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया । आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीं से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया । सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अलाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रतन सिंह अलाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अलाउद्दीन ने अपने सैनिकों को संकेत कर रतन सिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया ।

रतन सिंह को कैद करने के बाद अलाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रत्नसिंह को कैद मुक्त करेगा । रानी ने भी कूटनीति का जबाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अलाउद्दीन को सन्देश भेजा कि -" मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहूंगी यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे । रानी का ऐसा संदेश पाकर कामुक अलाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अद्भुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर संदेश भिजवा दिया ।

उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलिया तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिकों को कहारों के वेश में लगाया गया ।इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अलाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे । अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे । सारी पालकियां अलाउद्दीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अलाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रतन सिंह को अलाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चित्तौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया ।

इस हार से अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने के लिए ठान ली । आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया । जौहर के लिए गोमुख के उत्तर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया । रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया । थोडी ही देर में देव दुर्लभ सौंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया । जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया । महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -

बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ ।

सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ।।

इस प्रकार छह माह और सात दिन के खूनी संघर्ष के बाद 18 अप्रैल 1303 को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरुष,स्त्री या बालक जीवित नहीं मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके । उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशें और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे ।

रतन सिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परंपरा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी ।

चित्तौड़ यात्रा के दौरान पद्मिनी के महल को देखकर स्व.तनसिंह जी ने अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त किया -

यह रानी पद्मिनी के महल है । अतिथि-सत्कार की परंपरा को निभाने की साकार कीमत ब्याज का तकाजा कर रही है; जिसके वर्णन से काव्य आदिकाल से सरस होता रहा है,जिसके सौंदर्य के आगे देवलोक की सात्विकता बेहोश हो जाया करती थी;जिसकी खुशबू चुराकर फूल आज भी संसार में प्रसन्नता की सौरभ बरसाते है उसे भी कर्तव्य पालन की कीमत चुकानी पड़ी ? सब राख का ढेर हो गई केवल खुशबू भटक रही है-पारखियों की टोह में । क्षत्रिय होने का इतना दंड शायद ही किसी ने चुकाया हो । भोग और विलास जब सौंदर्य के परिधानों को पहन कर,मंगल कलशों को आम्र-पल्लवों से सुशोभित कर रानी पद्मिनी के महलों में आए थे,तब सती ने उन्हें लात मारकर जौहर व्रत का अनुष्ठान किया था । अपने छोटे भाई बादल को रण के लिए विदा देते हुए रानी ने पूछा था,- " मेरे छोटे सेनापति ! क्या तुम जा रहे हो ?" तब सौंदर्य के वे गर्वीले परिधान चिथड़े बनकर अपनी ही लज्जा छिपाने लगे; मंगल कलशों के आम्र पल्लव सूखी पत्तियां बन कर अपने ही विचारों की आंधी में उड़ गए;भोग और विलास लात खाकर धुल चाटने लगे । एक और उनकी दर्द भरी कराह थी और दूसरी और धू-धू करती जौहर यज्ञ की लपटों से सोलह हजार वीरांगनाओं के शरीर की समाधियां जल रही थी ।

कर्तव्य की नित्यता धूम्र बनकर वातावरण को पवित्र और पुलकित कर रही थी और संसार की अनित्यता जल-जल कर राख का ढेर हो रही थी ।

रावल समरसिंह के बाद उनका पुत्र रतन सिंह चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठा । रत्नसिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी । उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैली थी । उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चितौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी । उसने चितौड़ के किले को कई महीनों घेरे रखा पर चितौड़ की रक्षार्थ तैनात राजपूत सैनिको के अदम्य साहस व वीरता के चलते कई महीनों की घेरा बंदी व युद्ध के बावजूद वह चितौड़ के किले में घुस नहीं पाया ।

तब उसने कूटनीति से काम लेने की योजना बनाई और अपने दूत को चितौड़ रत्नसिंह के पास भेज सन्देश भेजा कि "हम तो आपसे मित्रता करना चाहते है रानी की सुन्दरता के बारे बहुत सुना है सो हमें तो सिर्फ एक बार रानी का मुंह दिखा दीजिये हम घेरा उठाकर दिल्ली लौट जायेंगे । सन्देश सुनकर रत्नसिंह आगबबुला हो उठे पर रानी पद्मिनी ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि " मेरे कारण व्यर्थ ही चितौड़ के सैनिको का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है । " रानी को अपनी नहीं पुरे मेवाड़ की चिंता थी वह नहीं चाहती थी कि उसके चलते पूरा मेवाड़ राज्य तबाह हो जाये और प्रजा को भारी दुःख उठाना पड़े क्योंकि मेवाड़ की सेना अलाउद्दीन की विशाल सेना के आगे बहुत छोटी थी । सो उसने बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि अलाउद्दीन चाहे तो रानी का मुख आईने में देख सकता है ।

अलाउद्दीन भी समझ रहा था कि राजपूत वीरों को हराना बहुत कठिन काम है और बिना जीत के घेरा उठाने से उसके सैनिकों का मनोबल टूट सकता है साथ ही उसकी बदनामी होगी वो अलग सो उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया

चित्तौड़ के किले में अलाउद्दीन का स्वागत रतन सिंह ने अतिथि की तरह किया । रानी पद्मिनी का महल सरोवर के बीचों बीच था सो दीवार पर एक बड़ा आइना लगाया गया रानी को आईने के सामने बिठाया गया । आईने से खिड़की के जरिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी वहीं से अल्लाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया । सरोवर के पानी में रानी के मुख की परछाई में उसका सौन्दर्य देख देखकर अलाउद्दीन चकित रह गया और उसने मन ही मन रानी को पाने के लिए कुटिल चाल चलने की सोच ली जब रतन सिंह अलाउद्दीन को वापस जाने के लिए किले के द्वार तक छोड़ने आये तो अलाउद्दीन ने अपने सैनिकों को संकेत कर रतन सिंह को धोखे से गिरफ्तार कर लिया ।

रतन सिंह को कैद करने के बाद अलाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि रानी को उसे सौंपने के बाद ही वह रतन सिंह को कैद मुक्त करेगा । रानी ने भी कूटनीति का जवाब कूटनीति से देने का निश्चय किया और उसने अलाउद्दीन को संदेश भेजा कि -" मैं मेवाड़ की महारानी अपनी सात सौ दासियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने पति के दर्शन करना चाहेंगे यदि आपको मेरी यह शर्त स्वीकार है तो मुझे सूचित करे । रानी का ऐसा संदेश पाकर कामुक अलाउद्दीन के ख़ुशी का ठिकाना न रहा ,और उस अद्भुत सुन्दर रानी को पाने के लिए बेताब उसने तुरंत रानी की शर्त स्वीकार कर संदेश भिजवा दिया ।

उधर रानी ने अपने काका गोरा व भाई बादल के साथ रणनीति तैयार कर सात सौ डोलिया तैयार करवाई और इन डोलियों में हथियार बंद राजपूत वीर सैनिक बिठा दिए डोलियों को उठाने के लिए भी कहारों के स्थान पर छांटे हुए वीर सैनिकों को कहारों के वेश में लगाया गया ।इस तरह पूरी तैयारी कर रानी अलाउद्दीन के शिविर में अपने पति को छुड़ाने हेतु चली उसकी डोली के साथ गोरा व बादल जैसे युद्ध कला में निपुण वीर चल रहे थे । अल्लाउद्दीन व उसके सैनिक रानी के काफिले को दूर से देख रहे थे । सारी पालकियां अलाउद्दीन के शिविर के पास आकर रुकीं और उनमे से राजपूत वीर अपनी तलवारे सहित निकल कर यवन सेना पर अचानक टूट पड़े इस तरह अचानक हमले से अलाउद्दीन की सेना हक्की बक्की रह गयी और गोरा बादल ने तत्परता से रतन सिंह को अलाउद्दीन की कैद से मुक्त कर सकुशल चित्तौड़ के दुर्ग में पहुंचा दिया ।

इस हार से अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ और उसने अब चितौड़ विजय करने के लिए ठान ली । आखिर उसके छ:माह से ज्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण किले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया तब राजपूत सैनिकों ने केसरिया बाना पहन कर जौहर और शाका करने का निश्चय किया । जौहर के लिए गोमुख के उत्तर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया । रानी पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रानियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया । थोड़ी ही देर में देव दुर्लभ सौंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया । जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया । महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -

बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ ।

सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ ।।

इस प्रकार छह माह और सात दिन के खूनी संघर्ष के बाद 18 अप्रैल 1303 को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरुष,स्त्री या बालक जीवित नहीं मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके । उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशें और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे ।

रतन सिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को प्राप्त हुए और रानी पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परंपरा मर्यादा और अपने कुल गौरव की रक्षार्थ जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हो गयी जिसकी कीर्ति गाथा आज भी अमर है और सदियों तक आने वाली पीढ़ी को गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी ।


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