बिहार विधानसभा चुनाव में राजपूतों की भूमिका (rajputs of bihar)








बिहार विधानसभा चुनाव में राजपूतों की भूमिका-------






मित्रों बिहार में
विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है
,इस बार का चुनाव राष्ट्रिय
राजनीती के लिए भी बेहद अहम और निर्णायक सिद्ध होने जा रहा है
,मोदी
लहर की इस बार बेहद कठिन परीक्षा भी होने जा रही है और साथ ही साथ उनके विपक्षी लालू
प्रसाद यादव और नितीश कुमार भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं
,





इस बार
अगर बीजेपी हार गयी तो उसकी पुरे देश भर में उलटी गिनती शुरू हो जाएगी और बीजेपी के
अंदर भी मोदी विरोधी एक बार फिर से उन पर हावी होकर सत्ता परिवर्तन की मांग कर सकते
हैं
,बिहार चुनाव में अगर बीजेपी हार जाती है तो फिर वो अगली बार
उत्तर प्रदेश
,पंजाब,बंगाल में भी नहीं जीत पाएगी ,


वहीं अगर लालू-नितीश
का महागठबंधन हार गया तो उनकी राजनीती समाप्त हो जाएगी और इससे दबंग और नवसामंतवादी
पिछड़ों के वर्चस्व की राजनीती को भी गहरा अघात होगा और सवर्णों को बिहार में कुछ राहत
की सांस मिल सकती है
,





राजनितिक दलों के
अलावा बिहार चुनाव में विभिन्न सामाजिक वर्गों का 
भविष्य भी दांव पर लगा हुआ है
,लालू प्रसाद यादव ने इसे
अगड़े पिछड़ों की जंग का रूप दे दिया है और आरक्षण सीमा को बढ़ाकर 80% किये जाने की भी
चुनौती दे डाली है उन्हें नितीश कुमार का पूरा समर्थन हासिल है और लालू-नितीश मिलकर
कुर्मी+अहीर मुस्लिम वोट के सहयोग से बिहार से सवर्णों के सफाए के लिए कटिबद्ध हैं
और इन वर्गों का उन्हें भरपूर समर्थन भी प्राप्त हो रहा है
,अगर
लालू-नितीश का महागठबंधन जीत जाता है तो बिहार में दम तोड़ चूका नक्सलवादी आन्दोलन फिर
से सर उठा सकता है और इसके फलस्वरूप राजपूत-भूमिहार किसानो का बड़े पैमाने पर नरसंहार
और उनकी भूमि बंधक बनाई जा सकती है
,


इसलिए बिहार का आने
वाला विधानसभा चुनाव इस बार सवर्णों का भविष्य तय करेगा
,अगर
यहाँ बीजेपी जीत जाती है तो फिर इसका सीधा प्रभाव उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनावो
पर जरुर पड़ेगा और वहां से माया-मुलायम की पिछड़ा-दलित-मुस्लिम राजनीती का सफाया होना
निश्चित है
,,,,,,





बिहार विधानसभा
चुनावो में राजपूतों की क्या भूमिका और रणनीति हो इस पर विशेष मंथन अतिआवश्यक है
,


अनुग्रह
नारायण सिंह से लेकर आनंद मोहन सिंह तक के नेताओं को षडयंत्र के तहत हाशिये पर डाला
गया और राजपूत समाज राष्ट्र प्रेम में लगा रहा और कुछ चालाक जातियां अपनी जाति के फायदे
में लगी रही. उन्हे राष्ट्र से कोई मतलब नही! क्या राजपूत समाज अबकि बार अपनी गहरी
नींद से जागेगा
?


क्या राजपूत समाज
मुफ्त में वोट देता रहेगा
?


क्या राजपूत समाज
राष्ट्र प्रेम को कुछ दिन छोड़कर अपनी जाति के प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार करने के
लिए खड़ा हो पाएगा
??


हम इस सम्बन्ध
में अपना दृष्टिकोण और अधयन्न इस निबन्ध के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं.......





बिहार के सामाजिक
समीकरण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि----





 ब्रिटिशकाल शुरू
होने से कुछ समय पहले तक बिहार में अधिकतर जमीदारी राजपूतो और मुसलमानो के पास थी।जैसे
जैसे अंग्रेजो की ताकत बढ़ती गई तो बिहार में ब्राह्मणों की उपजाति भूमिहार ने उनसे
सम्पर्क शुरू कर दिया।राजपूतो और मुस्लिमो के सम्बन्ध अंग्रेजो से अच्छे नही थे इसीलिए
अंग्रेजो ने ईस्ट यूपी के बनारस से बिहार तक भूमिहार जाति को बढ़ावा देना शुरू किया।भूमिहारो
ने अंग्रेजो के सहयोग से बड़ी बड़ी जमीदारी स्टेट बना ली और राजपूतो ने इस पुरे इलाके
में 1857 की क्रांति के समय और इसके पहले और बाद में भी अंग्रेजो से डटकर लोहा लिया
जिसका परिणाम इन्हें भुगतना पड़ा और राजपूतो की बहुत सी जमीदारियां जब्त कर ली गई।


भूमिहारो का बिहार
में जो भी उत्कर्ष हुआ वो सब राजपूतो की कीमत पर हुआ।हालाँकि इसके बाद भी बिहार में
राजपूतो की ताकत और रुतबा कायम रहा।





स्वतंत्रता के बाद
बिहार की राजनीति-------





आजादी के तुरन्त
बाद आबादी के मात्र 3% भूमिहारो ने ब्राह्मणों के सहयोग से बिहार की सत्ता हथिया ली।दलित
मुस्लिम वोट कांग्रेस के नाम पर इन्हें थोक में मिलता रहा और ब्राह्मण भूमिहारो ने
मिलकर बिहार पर 35-40 साल राज किया।सभी सरकारी नोकरिया हथिया ली और इन दोनों ने मिलकर
आबादी के 7% राजपूतों को पूरी तरह सत्ता सुख से वंचित रखा और इनके राज में राजपूत समाज
पूरी तरह से उपेक्षित रहे।


 राजस्थान की अपेक्षा
यहाँ के राजपूत शुरू से कांग्रेस से जुड़ गए।किंतु आजादी के बाद कांग्रेस ने सबसे वरिष्ठ
राजपूत नेता बाबू अनुग्रह नारायण सिंह की बजाय भूमिहार जाति के श्रीकृष्ण सिंह को मुख्यमन्त्री
बनाया जो लगातार 16 वर्ष तक मुख्यमन्त्री बने रहे।और अनुग्रह  नारायण सिंह को सिर्फ डिप्टी
सीएम के पद से संतोष करना पड़ा।





शासन प्रशासन पर
इस प्रकार शुरू से ही भूमिहार जाति ने बड़ी पकड़ बना ली।एक समय ऐसा था कि बिहार की जनसंख्या
के सिर्फ 3% भूमिहारो के वहां 18 सांसद और 50 विधायक चुने गये थे ।





शिक्षा के दम पर
ब्राह्मणों और कायस्थों ने भी भरपूर विकास किया।राजपूत भी अधिक पीछे नही रहे और चूँकि
वहां भूमि सुधार नही हुआ था इसलिए मजबूत राजपूत भी बीच बीच में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते
रहे और चन्द्रशेखर सिंह तथा सत्येंद्र नारायण सिंह जैसे राजपूत मुख्यमन्त्री बिहार
में थोड़े थोड़े समय के लिए बने पर इस अल्पकाल में राजपूत हित का कोई ठोस कार्य नही हो
सका।स्वतंत्रता के बाद 68 साल में 04 राजपूत मुख्यमन्त्री कुल 02 साल भी मिलकर राज
नही कर पाए या ये कहें कि ब्राह्मण भूमिहारो ने जमने नही दिया।





1977 की जेपी क्रांति
ने भी बिहार को लालू अहीर और नितीश जैसे नेता दिए जो आगे चलकर बिहार के लिए अभिशाप
सिद्ध हुए।


जेपी आंदोलन से बिहार
में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमन्त्री बने जो जाति से नाई थे।उन्होंने पिछड़ी जातियों के हित
के कुछ कार्य किये पर इससे बिहार में कोई बड़ा सामाजिक परिवर्तन नही हुआ।पर इसी काल
में वहां नक्सलवाद की नीव पड़ गयी जो बंगाल और दिल्ली के जेएनयू की देन थी।


इसके बाद बिहार में
मण्डल की राजनीती शुरू हो गई और इसी के साथ लालू अहीर के नेतृत्व में पिछड़ी जातियो
और मुसलमानो की गोलबन्दी शुरू हो गई और ब्राह्मण/भूमिहार/राजपूतो के दुर्दिन शुरू हो
गए।





लालू प्रसाद यादव
ने नारा दिया--------





भूरा बाल साफ़ करो(भूरा
बाल मतलब भूमिहार राजपूत ब्राह्मण लाला)।


जब तक ब्राह्मण की
बेटी दलित की खाट पर नही बैठेगी तब तक सामाजिक न्याय नही मिलेगा।।


भूरा बाल साफ़ करने
के लिए लालू की शह पर नक्सलवादियों ने भूमिहार और राजपूत किसानो का नरसंहार करना शुरू
कर दिया।और स्वर्ण किसानो को अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझना पड़ा।इसका मुकाबला करने
के लिए जमीदारो ने सनलाइट सेना/रणवीर सेना जैसी निजी सेनाएं बनाई और इस दौर में राजपूत/भूमिहारो
ने मिलकर नक्सलवादियो के पैर उखाड़ दिए।इनपर दर्जनों नरसंहारो का आरोप भी लगा।





ये दौर बिहार में
अहीरों के वर्चस्व का था और एक समय बिहार में कुल 80 अहीर विधायक चुने गए थे.भूमिहार/ब्राह्मण
हाशिये पर चले गए।राजपूतो के एक छोटे से वर्ग को लालू प्रसाद ने टिकट देकर अपने साथ
मिला लिया।इस दौर में आनन्द मोहन जैसे दमदार युवा राजपूत नेता ने लालू यादव का जमकर
विरोध किया
,पर उन्हें अन्य सवर्णों का यथोचित सहयोग नहीं मिला क्योंकि लालू
के स्वर्ण युग में भी भूमिहार और ब्राह्मण कमजोर हो चुकी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी
को वोट देते रहे
,जिससे लालू प्रसाद लगातार चुनाव जीतते चले गए,


आरक्षण विरोधी आंदोलन
से बिहार में आनन्द मोहन सिंह जैसा दबंग राजपूत नेता सामने आया जिसने राजपूतो के साथ
भूमिहार ब्राह्मण और गैर अहीर मौर्चा बनाकर बिहार पीपुल्स पार्टी का गठन किया।जिसने
वैशाली के उपचुनाव में लालू के उम्मीदवार को हराकर तहलका मचा दिया था और यह दल बिहार
में सत्ता के विकल्प के रूप में उभरा पर सदियो से सवर्णो में चली आ रही खाई पट नही
पाई और यह प्रयास विफल रहा।





नितीश कुमार-----


लालू युग के बाद
बिहार में बीजेपी के सहयोग से नितीश कुमार का युग शुरू हुआ जो कुर्मी जाति के थे।नितीश
घोर राजपूत विरोधी नेता है।इसने सवर्णो में फुट डालने के लिए भूमिहारो को अपने साथ
मिला लिया और बीजेपी के सुशील मोदी के साथ मिलकर राजपूत नेताओं का सफाया शुरू कर दिया।


पहले इन्होंने दबंग
राजपूत नेता आनन्द मोहन सिंह को झूठे मुकदमे में फांसी/उम्रकैद की सजा कराई।फिर दिग्विजय
सिंह (अब स्वर्गीय) को अपने दल से बाहर करा दिया।इसके बाद दबंग नेता प्रभुनाथ सिंह
को पार्टी से बाहर कर दिया।


इस प्रकार नितीश
कुमार ने भूमिहारो को साथ मिलाकर बीजेपी नेताओं के साथ मिलकर राजपूत समाज को रसातल
में पहुँचाने का प्रयास किया।





बिहार में विभिन्न
वर्गों की संभावित आबादी और पतिनिधित्व------





1-अहीर(गोप,ग्वाल)--14%


2-मुस्लिम--16%


3-राजपूत --7%


4-ब्राह्मण --6%


5-भूमिहार--3%


6-कुर्मी--3%


7-कोइरी--7%


बिहार में यादव
14% के बाद सबसे अधिक जनसंख्या वाला राजपूत 7%
, बिहार
के कुल 243 विधानसभा क्षेत्रों में 75 विधानसभा क्षेत्रों में पहले या दूसरे नंबर पर
हैं. बिहार के मुख्यमंत्रियों में भूमिहार 24 वर्ष
, यादव
16 वर्ष
, कुर्मी 10 वर्ष, ब्राह्मण 23 वर्ष, कायस्थ
5 वर्ष व चार टर्म में राजपूत 2 वर्ष रहा है. इस प्रकार बिहार में बड़ी आबादी होते हुए
भी राजपूत समाज सत्ता सुख से वंचित रहा है
,और राजपूतों के लिए अपने
समाज से मुख्यमंत्री बनना बेहद जरुरी है...





1990 में राजपूत
विधायको की संख्या 41 थी जो 1995 में गिरकर सिर्फ 22 रह गयी और 2010 में यह संख्या
31 हो गयी थी
,अहीर विधायक भी एक समय 80 पर जा पहुंचे थे ,अब सिर्फ
40 रह गए हैं
,भूमिहार एक समय 50 तक विधायक चुने गए थे,अब सिमट
कर 26 पर आ गए हैं...


फिर भी बिहार में
1989 के बाद सबसे ज्यादा सांसद और विधायक अहीर बन रहे हैं और उनके बाद राजपूतो का नम्बर
आता है।इस समय बिहार में 6 सांसद राजपूत हैं(पिछली बार 8)।जिनमे दो केंद्रीय मंत्री
हैं।अहीरो के बाद सबसे ज्यादा 31 विधायक भी राजपूत ही हैं
,और आधा
दर्जन राज्य सरकार में मंत्री भी हैं।यहाँ के राजपूत अधिकतर बीजेपी के वोटर हैं पर
लालू या नितीश भी राजपूत को टिकट दे या कोई निर्दलीय तगड़ा राजपूत उम्मीदवार हो तो उसे
भी भरपूर वोट मिलता है।इसी कारण बिहार में राजपूत विधायक/सांसदों की संख्या जनसँख्या
के अनुपात से हमेशा दो से तीन गुणी होती है।


पर फिर भी इतने मंत्री/सांसद/विधायक
होते हुए भी बिहार में राजपूतो का वो दबदबा नही है जो होना चाहिए।
हालाँकि ओरंगाबाद
,छपरा,महाराजगंज
आदि कई जिलो में राजपूती वर्चस्व अभी भी साफ़ दिखता है।कोई भी दल कभी राजपूतो का तुष्टिकरण
नही करता।





 बिहार में बीजेपी
द्वारा घोषित कुछ उमीद्वारो के नाम---------


amrendra pratap singh - (son of bihar ex
chief minister harihar singh and right now he is deputy speaker bihar)


Ramadhar singh - (5 times mla continue)


Gopal narayan singh - (owner of narayan
group of colleges and ex president bihar BJP)


sarvesh kumar singh -(ex mla)


ashok singh - (ex mla known as yuvraj
sahab)


ajay pratap singh -(mla and son of MLC
and minister sumit singh)


kameshwar singh


tarkeshwar singh ( 2 times mla)


janak singh


vinay kumar singh(mla and the person who
fought with lalu yadav in horse fair when he called his horse chetak)


achyutanand singh (ex student leader and
bjp mahasachiv bihar)


rannvijay singh (2 times mla,bahubaali
leader)


subhash singh


rajkumar singh (young political face of
rajputs)


ashok kumar singh (sitting mla)


arun kumar singh


brij kishor singh


rana randhir singh (son of ex minister
sita singh)


sachinendra singh


ajay kumar singh (Buisness man)


sanjay singh urf "tiger"
(bahubaali politician)


manoj singh


dev ranjan singh (famous doctor)


sweety singh (from royal family, social
worker,Politician,hotelier, bjp yuva morcha adhyaksha)


neeraj kumar singh (2 times mla and
brother of sushant singh rajput)


vinod singh (sitting mla)





सिर्फ बीजेपी से 32 और पुरे एनडीए से
39 राजपूत उम्मीदवार लड़ेंगे।


लेकिन जहाँ एक और बीजेपी ने अपने हिस्से की 160 सीटो में
राजपूतो को 32 टिकट दिए हैं वहीं उनके सहयोगी एनडीए के घटक दलों ने 80 सीटों में
से मात्र 7 टिकट राजपूतो को दिए हैं।कुशवाह और मांझी की पार्टियों ने 1-1 टिकट राजपूतो
को थमाकर और भूमिहारो को अधिक सीट बांटकर राजपूतो को लगभग दरकिनार किया है।यही नही
मांझी की पार्टी हम ने बिहार के सबसे लोकप्रिय नेता आनन्द मोहन सिंह की पत्नी को बड़ी
न नुकर के बाद सिर्फ एक टिकट शिवहर से थमा दिया है।उनके किसी और समर्थक को टिकट नही
दिया गया है।


 वही लालू यादव और नितीश कुमार कांग्रेस
के महागठबन्धन ने 243 सीटों पर मात्र 16 राजपूत उम्मीदवार उतारे हैं जो उनकी राजपूतो
और स्वर्णो के प्रति विध्वंस की निति को दर्शाता है।


हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण
की समीक्षा किये जाने के बयान पर लालू ने खुली चुनोती स्वर्णो को देते हुए कहा है कि ओबीसी
आरक्षण को और बढ़ाकर कुल आरक्षण 80% तक किया जाएगा।अगर इस बार लालू और नितीश का गठबंधन
जीत गया तो ये बिहार के स्वर्णो के लिए मौत का पैगाम होगा।क्योंकि अहीर कुर्मी मुस्लिम
के मजबूत गठबंधन के आगे सवर्णो की हैसियत शून्य होगी।





रघुवंश प्रसाद सिंह प्रभुनाथ सिंह जगदानन्द
सिंह जैसे राजपूत नेता लालू यादव के दल में बिलकुल उपेक्षित और महत्वहीन से हो गए हैं।लालू
यादव और नितीश कुमार ने कुल 64 अहीर उम्मीदवार उतारकर अपनी सोच दर्शा दी है।अब फिर
से लालू और नितीश एक हो गए हैं और सच यही है कि अगर राजपूत/ब्राह्मण/भूमिहार अपने मतभेद
भूलकर एक साथ नही आते है तो बिहार में सवर्णो का भविष्य एकदम अंधकारमय है।।।।।





भूमिहार समाज की भूमिका------





बिहार में स्वर्णो को अपना अस्तित्व बचाने
के लिए आपसी मतभेद भूलकर एकजुट हो जाना चाहिए।किन्तु यहाँ भूमिहार जाति का स्वार्थी
नजरिया स्वर्ण एकता में सबसे बड़ा बाधक है।आज आनन्द मोहन सिंह जिस भूमिहार नेता छोटन शुक्ला की हत्या
के विरोध प्रदर्शन में हुई दुरघटना में जेल में सजा काट रहे हैं उस भूमिहार नेता के भाई
सब नितीश कुमार के साथ समझोता करके सत्ता सुख भोग रहे हैं।बहुत से भूमिहार राजपूतों से उसी प्रकार
ईर्षा करते हैं जिस प्रकार उत्तर भारत में जाट राजपूतो से करते हैं।





अमित शाह और मोदी ने मिलकर एक लौ प्रोफाइल
और मेहनती कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह (जाति राजपूत)को मुख्यमन्त्री पद देने का मन बनाया
है और इसीलिए उन्हें विधानसभा चुनाव भी लड़वाया जा रहा है।लेकिन उनका रास्ता रोकने के
लिए जातिगत विद्वेष के कारण फिर से भूमिहार नेताओं द्वारा साजिश की जा रही है।भूमिहारो
में पहले कुल बाद में फूल का नारा दिया जा रहा है।हाल ही में बीजेपी के भूमिहार नेता
गिरीराज सिंह का बयान कि बिहार में कोई स्वर्ण नेता मुख्यमंत्री नही बनेगा।दरअसल ये
बयान राजपूत मुख्यमन्त्री का रास्ता रोकने को दिया गया है।


इसका मतलब भूमिहार समाज किसी भी जाति के
मुख्यमन्त्री को बर्दाश्त कर सकता है मगर वो राजपूत को उच्च पद पर नही देख सकता!!!!!!!बिहार
में भूमिहार और ब्राह्मणों द्वारा राजपूत विरोध की यह निति और सवर्णों के आपसी मतभेद
से ही बिहार में दबंग पिछडो का वर्चस्व बढ़ा है....





अगर उनकी यही निति बनी रही तो बिहार से
भूरा बाल यानि स्वर्णो का सूपड़ा साफ़ होना निश्चित हैं।।।अगर स्वर्ण एकता चाहिए तो भूमिहार
समाज को यह सोच छोड़नी होगी।


और मिलकर इन आरक्षणवादियो को सबक सिखाना
होगा....





अंत में राजपूत समाज की बिहार चुनावो में
भूमिका पर निष्कर्ष-------



यह भी सही है कि बीजेपी राजपूतो और सवर्णों
के वोट बैंक का दोहन करती है पर बदले में कुछ नहीं देती
,
किन्तु दुर्भाग्यवश बिहार में राजपूतों और सवर्णों के पास कोई और विकल्प
नही है
,नोटा का बटन दबाने से या किसी निर्दलीय को समर्थन करने
से या मतदान का बहिष्कार करने से बिहार में लालू-नितीश की जीत पक्की हो जाएगी और सवर्णों
,दलितों,गैर कुर्मी,अहीर पिछडो के
लिए यह स्थिति नर्क के समान हो जाएगी..बीजेपी की चाहो कितनी आलोचना करो
,कोई भला न करे बीजेपी राजपूतो का-----


पर 
राजपूत समाज अपने समाज का मुख्यमन्त्री बनवाने के लिए सिर्फ और
सिर्फ बीजेपी और एनडीए उम्मीदवारो को वोट देकर सफल बनाए


(जहाँ किसी और दल से या निर्दलीय कोई अच्छा
समाज हितैषी और मजबूत राजपूत उम्मीदवार हो तो उसे भी अपवाद स्वरूप समर्थन दें)


राजपूतो के जन्मजात दुश्मन नितीश कुमार
और लल्लू यादव का सूपड़ा साफ़ करके क्षत्रिय शेर आनन्द मोहन सिंह के साथ हुए अन्याय का
बदला जरूर लें।


आप सभी से अनुरोध है की आप राजपूत उम्मीदवार
का समर्थन करके उसे जीत दिलाये ताकि बिहार में राजपूत मुख्यमंत्री की दावेदारी मजबूत
हो सके.....


सन्दर्भ------http://rajputanasoch-kshatriyaitihas.blogspot.in/2015/10/rajputs-of-bihar.html







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