COLONIAL MYTH OF ORIGIN OF GURJARA PRATIHARAS



THE COLONIAL MYTH OF GURJARA PRATIHARA ORIGIN PART-1



Rajputana Soch राजपूताना सोच और क्षत्रिय इतिहास











भाइयों आज से हम एक ऐसे क्षत्रिय राजपूत राजवंश के ऊपर अपनी पोस्ट्स की शृंखला शुरू करने जा रहें है जिसके इतिहास को कई विदेशी व उनके देसी वाम्पन्ति इतिहासकारों ने अपने तरह तरह के ख्याली पुलाव व तर्कहीन वादों से दूषित करने की कोशिश की और वे इस कार्य में कुछ हद तक सफल भी रहे। परंतु आज के समय में जब साधन व संसाधन बढ़ गएँ है और सभी प्रकार के ऐतिहासिक साक्ष्य जन साधारण व विशेषज्ञ शोधकर्ताओं के पहुच के भीतर उपलब्ध ही चुके है तो नए विश्लेषण पुराने बेतुके तर्कों के साथ तोड़ मरोड़ कर पेश किये गए इतिहास की कलई खोल रहें हैं।

दरहसल पुरातन काल से ये माना जाता रहा है के इतिहास उसी का होता है जिसका शाशन होता है और शाशक आदिकाल से इतिहास को तोड़ मरोड़ के अपने अनुसार जन साधारण के सामने प्रस्तुत कर उनकी भावनाओं का फायदा उठातें आएं हैं।

भारत में पढ़ाये जा रहे जिस इतिहास को आज हम पढ़तें है व दरहसल 18 वीं सदी में अंग्रेजों द्वारा दी व सिखाई पदत्ति पर आधारित है। और यही नहीं भारत के इतिहास में पढाई जाने वाली ज्यादातर विषय और मान्यताएँ आज आजादी के 68 सालों बाद भी इन्हीं अंग्रेजों की देन है। अब आप अनुमान लगा ही सकते हैं के जो विदेशी भारतीय परम्पराओं व मान्यताओं और उसकी समझ से कोसों दूर थे बिलकुल अलग सभ्यता और संस्कृति से थे वे क्या तो भारत की संस्कृति को समझें होंगे और क्या ही इतिहास बांच के गए होंगे।
दरहसल अंग्रेज भारतीय इतिहास को अपनी सियासत का हिस्सा समझ इससे खेलते रहे और भारतीय समाज की संस्कृति नष्ट करने के लिए व इसका बखूबी इस्तेमाल कर गए। दरहसल आज पढ़ाये जाने वाला भारतीय इतिहास की नींव लगभग उसी समय शुरू हुई जब भारत के लोगों ने अंग्रेजों के शाशन के खिलाफ बिगुल बजाया और सन 1857 की क्रांति का उद्घोष हुआ। ऐसे में ज्यादातर अंग्रेज इतिहासकार भारत पर अपने कमजोर होते शाशन को देख इतिहास को सियासी बिसात पर एक हथियार के भांति इस्तेमाल कर के चले गए। जैसे की हम सभी इस कथन से अनिभिज्ञ नहीं है के यदि आप किसी जाती समुदाय के संस्कृति नष्ट करदे तो उस पर अपनी संस्कृति थोप गुलाम बनाने में देर नहीं लगती। अंग्रेज इस कथन का महत्व जान इतिहास की तोड़ मरोड़ भारत की पर प्रहार संस्कृति व् उसके विनाश के लिए कर गए। इस तोर मरोड़ की चपेट में आकर सबसे ज्यादा जिस जाती को नुकसान झेलना पड़ा वो है भारत का अपना आर्य क्षत्रिय वर्ग जिसका विशेषण शब्द है "राजपूत"।

ये उन अंग्रेजों से कम कहाँ जिन्होंने भारत में रहने वाले आर्य व वेदिक संस्कृति में उतपन्न क्षत्रिय वर्ग जिसका विशेषण राजपूत शब्द था उन्हें 6वीं शताब्दी तक सीमित करने की कोशिश की और निराधार तरीके से राजपूतों के प्रति रंजिश निकालते हुए उन्हें निराधार रूप से शक हूण सींथ साबित करने की कोशिश की। वहीं आज के नव सामंतवादी जातियाँ निराधार इतिहास लिख कर उस सोशल मीडिया व इंटरनेट द्वारा फैला कर हमें राजपूत प्रयायवाची या विशेषण शब्द के आधारपर 11वीं सदी तक सीमित करने की फ़िराक में हैं।

ये उन अंग्रेजों से कम कहाँ जिन्होंने भारत में रहने वाले आर्य व वेदिक संस्कृति में उतपन्न क्षत्रिय वर्ग जिसका विशेषण राजपूत शब्द था उन्हें 6वीं शताब्दी तक सीमित करने की कोशिश की और निराधार तरीके से राजपूतों के प्रति रंजिश निकालते हुए उन्हें निराधार रूप से शक हूण सींथ साबित करने की कोशिश की। वहीं आज के नव सामंतवादी जातियाँ निराधार इतिहास लिख कर उस सोशल मीडिया व इंटरनेट द्वारा फैला कर हमें राजपूत प्रयायवाची या विशेषण शब्द के आधारपर 11वीं सदी तक सीमित करने की फ़िराक में हैं।
दरहसल कई अंग्रेज और वामपंथी (भगवान व भारतीय संस्कृति को न मानाने वाले) इतिहासकारों के इतिहास को धूमिल करने के तर्क इतने बेवकूफी भरे है के कई बार उन्हें पढ़ कर भारतवर्ष इसके अस्तित्व और यहाँ की शोध् पदत्ति पर बहोत हँसी आती है। कोई हिंदुओं को कायर मान और राजपूतों को बहादुर जान के आधार पर विदेशी लिख गया । कोई 36 राजवंशों में मजूद हूल को हूण समझ राजपूतों को आर्य क्षत्रियों और हूनो की मिलीजुली संतान लिख गया। किसी ने तो राजपूतों के लडाके स्वाभाव को देख श्री राम और कृष्ण को ही सींथ और शक लिख दिया। किसी ने द्विज शब्द का अर्थ ब्राह्मण बना दिया किसी गुर्जरा देस पर राज करने वाले सभी वंशों को बेतुका गुर्जर लिख दिया। हद तो तब हो गयी जब किसी ने राजपूतों के अंतर पाये जाने वाली सती प्रथा, विधवा विवाह न होना व मांसाहार के प्रचलन के करण इन्हें विदेशी होने का संदेह जाता कर इतिहास परोस दिया और लिख दिया 6ठी शताब्दी के बाद ही राजपूत क्षत्रियों का उद्भव हुआ।





जबकि C V Vaid, G S ojha , K N Munshi or Dashrath Sharma जैसे महान इतिहासकार इन मतों को सिरे से ख़ारिज कर चुकें हैं और राजपूतों को आर्य क्षत्रिय ही मानते हैं जो की पूर्ण रूप से सत्य भी है। 


शुद्ध रघुवंशी क्षत्रिय प्रतिहारों का इतिहास जानने से पहले आइये नजर डालते हैं उस जाती की उतपत्ति के मतों पर जो इस वंश पर झूठा दावा पेश करती है (जिसे NCERT ही नहीं मानता)।

===गुज्जर ( गौ + चर ) जाती की उतपत्ति के मत:===

==== डा भगवानलाल इन्द्राजी का गुजर इतिहास :====


इनके अनुसार गुजर जाती भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर मार्ग द्वारा आई गयी विदेशी जाती है जो प्रथम पंजाब में आबाद होकर धीरे धीरे गुजरात खानदेश की और फैली हालाँकि इसका कोई प्रमाण नहीं है। ये और लिखते है की गुजर कुषाण वंशी राजा कनिष्क के राज्यकाल 078 - 108 ईस्वी के समय भारत आये हालांकि इसका भी कोई प्रमाण नहीं है। ये अपने लेख में आगे और तर्क हीन तथा प्रमानरहित बात करते हुए गुजरात चौथी से आठवी शताब्दी के बीच में राज कर रहे मैत्रक वंश को भी गुर्जर होने का संदेह जाता गए जिसे हवेनत्सांग क्षत्रिय बता कर गया है। इन्होंने अपनी थ्योरी सिद्ध करने के लिए आगे सारी हदें ही पार करदी। ये लिखतें की हालांकि गुजरात में गुज्जरों की कई जातियाँ हैं जैसे गुजर बनिये , गुजर सुथार , गुजर सोनी , गुजर सुनार , गुजर कुंभार , गुजर ब्राह्मण , गुजर सिलावट और सबसे ज्यादा गुजर कुर्मी जो सभी गौचर जाती से बने। निष्चित रूप से इतिहासकार सनकी होते थे और अपना उल्लू सीधा करने के लिए किसी भी हद्द तक ख्याली पुलाव पका पका कर परोस देते थे। जिस कुर्मी जाती के ये बात कर रहें है दरहसल गुजरात का पटेल समुदाय है जो शुद्ध रूप से भारतीय जाती है।


==== सर काम्बैल की गुजर थ्योरी ====


सर काम्बैल ने भी अपने ख्याली पुलाव पकाये और गुजर को खजर जाती का ही बता डाला जो 6ठी शतब्दी में यूरोप और एशिया की सीमा पर स्थित के ताकतवर जाती थी। जिसका भी शब्द से शब्द जोड़ कर बनाना और तुक्के बाजी के अलावा कोई प्रमाण नहीं है।


==== बेडेन पॉवेल के अनुसार गुजर :====




"इसमें कोई संदेह नहीं है के पंजाब में भारी संख्या में बसने वाली जातियाँ ये सिद्ध करती है की वेदिशी आक्रमणकरी यथा बाल इंडो सींथियन ,गुजर और हूणों ने अपनों बस्ती बसाई होगी। पर इस कथन का भी इनके पास कोई प्रमाण नहीं।
ए ऍम टी जैकसन और भंडारकर द्वारा अविश्वसनीय गुज्जरों की खोज :

ए ऍम टी जैकसन तो आज के गुज्जरों के जन्मदाता माने जाने चाहिए| सन् 941 में कन्नड़ के सुप्रसिद्ध कवि पम्प जे विक्रमार्जुन विजय (पम्प भारत ) नाम का काव्य रचा| इस काव्य में चोल देश के चालुक्य (सोलंकी) राजा अरिकेसरी द्वितीय और उसके पूर्वजो की शौर्य गाथा लिखी हुई थी। उसमें पम्प यह वर्णन करता है कि अरिकेसरी के पिता नरसिंह द्वितीय (यह राष्ट्रकूटों का सामंत था )ने गुर्जरराज महिपाल को प्रारस्त कर उससे राजश्री छीन और उसका पीछा कर अपने घोड़ो को गंगा के संगम पर स्नान कराया। इस बात की पुष्टि राष्ट्रकूटों के अभिलेख भी करते हैं परंतु इन अभिलेखों में न तो प्रतिहार और ना ही गुजर शब्द का जिक्र मिलता है।
पम्प भारत में गुर्जरराज महिपाल लिखा देख अककल के अंधे जैक्सन ने यह मान लिया की यह महिपालगुर्जर अर्थात गूजर वंश का है। अगर हम किसी महामूर्ख या पागल आदमी से पूछें की गुर्जराराज का क्या अर्थ है ? तो वह भी यही बताएगा की इसका अर्थ तो सीधा साधा गुर्जर देस का राजा हुआ। गुर्जरराज का वास्तविक अर्थ गुर्जरदेस पर राज करने वाला है,गुजर जाती नहीं | यह भी ज्ञात होना बहोत जरूरी है के ऍम टी जैक्सन डिस्ट्रिक कलेक्टर थे इतिहासकार नहीं।



जैक्सन और डा डी आर भंडारकर के पारिवारिक तालुकात थे फिर भी वह इनके द्वारा दिए गए कुछ इतिहासिक विवरणों से इत्तेफाक रखते थे। डा डी आर भंडारकर सन 1907 में पुरातात्विक सर्वेक्षण के दौरान भीनमाल पहुचे तो उन्होंने पाया के जैक्सन ने वहां के जिन मंदिरो के शिलालेखों के अध्यन कर बॉम्बे गजेटियर प्रकाशित किया उनके मूल वचन बहोत भ्रष्ट थे अतः भंडारकर ने दुबारा इनकी छाप ली।



राजस्थान दौरे से लौट कर भंडारकर ने इस बात का स्पष्टीकरण भी जैक्सन से माँगा परंतु उसने देने से इंकार कर दिया। जैकसन और भंडारकर में मतभेद काफी समय तक रहे और पत्र व्यव्हार भी होते रहे |
कुछ समय बाद नासिक में कुम्भ का मेला हुआ जिसमे जैक्सन की हत्या कर दी गई। जैक्सन जाते जाते भंडारकर के कान में क्या मन्त्र फूक गया पता नहीं की वो एक दम से जैकसन की हाँ में हाँ मिलाने लग गया। 


जैकसन की मृत्यु के बाद उसको श्रधांजलि देते हुए आर जी भंडारकर और स्वयं डी आर भंडारकर ने अपनी संवेदना के पत्र इंडियन antiquery जान 1911 की भाग 40 में प्रकाशित करवाये और उसकी विचारधारा पर आधारित इतिहास का सबसे विवादस्पक लेख "फॉरेन एलिमेंट इन दी हिन्दू पापुलेशन" छापा।



गुरु तो निराधार रूप से प्रतिहार और चावड़ा वंश को ही गुजर बता कर नर्क चला गया परन्तु चेले ने तो और भी कमाल कर दिखाया। संस्कृत श्लोकों के मनमाने अर्थ और मुद्राओं की मनमानी व्याख्या और शिलालेखों की त्रुटिपूर्ण अर्थ निष्पत्ति से आधे गुजरात और तजस्थान को गुजर बतला दिया गया। जैसे भारत के इस हिस्से दूसरी कोई और जाती हो ही नहीं।

यह तो ऐसा पागलपण था जो बीसवीं सदी के बंगाली इतिहासकारों और विद्वानों को अपनी चपेट में ले लिया था । ये प्राचीन भारत के महाकवियों , मूर्धन्य विद्वानों को बंगाली बनाने या सिद्ध करने के जोड़ तोड़ में लगे रहते थे यहां तक की महाकवि कालिदास को भीं इन्होंने नहीं छोड़ा|

भंडारकर का यह पक्षपात उनके समय और बाद के कई इतिहासकारों जैसे डा बिन्दिराज ने दर्ज की। और मनगढ़ंत लिखने के कारण भंडारकर इतिहास के विषय में अपनी क्रेडिबिलिटी खो गए जिसे आज भी साजिश के तहत विकिपीडिया पर दिखाया जाता है।



==== स्मिथ और उसकी गूजर अवधारणा ====


गुलाम भारत के आंग्ल इतिहासकार विन्सेंट ए स्मिथ ने ई स की 20 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में अपने ग्रन्थ ' अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया फ्रॉम 600 बी सी टू मोहम्मडन कॉन्क़ुएस्ट' प्रस्तुत किया।

इनके अनुसार प्राचीन लेखों में हूणों के साथ गूजरों का भी उल्लेख मिलता है जो आजकल को गुज्जर जाती है जो उत्तर पश्चिम भारत में निवास करती है। इनके 'अनुमान' से गुज्जर श्वेत हूणों के साथ आये थे और इनके संबंधी थे। इन्होंने राजपूताने में राज्य स्थापित किया और भीनमाल को अपनी राजधानी बनाया। इनके अनुसार भरूच का छोटा सा गुजर सम्राज्य भी राजस्थान के प्रतिहारों की शाखा थी और गुर्जरा की प्रतिहारों ने ही समय पाकर कन्नोज को कब्ज़ा लिया।
अपने से पूर्व आने वाले शक और यु ची ( कुषाण ) लोगों के समान यह विदेशी जाती भी शीघ्र ही हिन्दू धर्म में मिल गई। इनके जिन कुटुम्बों या शाखाओं ने कुछ भूमि पर अधिकार कर लिया वे तत्काल क्षत्रिय (प्रतिहार) और उत्तर भारत के कई दुसरे प्रसिद्ध राजवंश इन्हीं जंगली गुजर समुदाय से निकले हैं जो ई स 5 वीं या 6ठी शताब्दी में हिंदुस्तान आये थे। इन विदेशी सैनिकों और साथियों से गूजर और दूसरी जातियां बनी जो पद और प्रतिष्ठा में राजपूतों से कम थे।

इसी ग्रन्थ के अन्य उल्लेख में स्मिथ कहता है '' इतिहासिक प्रमाणों से भारत में तीन बाहरी जातियाँ सिद्ध हैं जिसमें से शक , कुषाण और का वर्णन कर चूका है। निःसंदेह शक और कुषाण राजाओं ने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया तब वे हिन्दू जाती प्रथा के अनुसार क्षत्रियों में मिला लिए गए, किन्तु इस कथन के पीछे हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है।"( पेज 407, उसी किताब में)।

हा हा हा। तो स्मिथ भईया ने भी कल्पना के घोड़े सांतवे आसमान तक दौड़ा कर भारतीय इतिहास लिख डाला जिसका कोई प्रमाण उनके पास नहीं था। निश्चित ही आर्यों की महान सभ्यता को लांछित कर के वह नर्क ही गए होंगे।

और अंत में स्मिथ हूणों के बारे में कहता है," शक कुशान के बाद भारत में प्रवेश करने वाली तीसरी जाती हूण या श्वेत हूण थी जो पांचवी या छठी शताब्दी के प्रारंभ में यहाँ आई। इन तीनों के साथ कई जातियों ने भारत में प्रवेश किया|

मनुष्यों की जातियाँ निर्णय करने वाली विद्या पुरातत्व और सिक्कों ने विद्वानों के चित्त पर अंकित कर दिया है कि हूणों ने ही हिन्दू संथाओं और हिन्दू राजनीती को हिला कर रख दिया ... हूण जाती ही विशेशकर राजपुताना और पंजाब में स्थाई हुई जैसे भारत में आर्य तो लुप्त ही हो गए।
स्मिथ के कथनानुसार गुर्जर हूणों का एक विभाग है परंतु जनरल cunnigham ' उन्हें यू ची या टोचरि लुटेरी जातियों के वंशज बतातें हैं।"(Cunningham Archeological survey of India,1963-64, भाग 2, पृ 70.)



===समीक्षा===


निश्चित रूप से इतिहास उत्थान और पतन की कुंजी है | इस रहस्य को समझ क्र अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास को विकृत करने की कोशिश करने में अपने पूर्ण सामर्थ्य के साथ योजनाबढ़ काम किया। इस कार्य के लिये मध्यकाल की भारतीय समाज की अज्ञानता और धार्मिक जड़ता के साथ कूप मंडकुता और पराधीनता ने उन्हें मनवांछित फल प्रदान किया है।
यह सत्य है की इतिहासिक शोध की नई प्राणाली के जन्म दाता वही रहे हैं, परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि शोध के नाम पर किये गए विश्लेषण में उनके जातीय और राजनीतिक हितों ने जबरदस्त हस्तक्षेप किया है और यह सिलसिला आजादी के बाद उभरी जातियों ने आज भी अपने लाभ के लिए जारी रखा है।



विन्सेंट स्मिथ अर्ली हिस्ट्री और इण्डिया में भारत का प्राचीनतम इतिहास लिख रहा था, तोता मैना की कहानी नहीं। जब वह स्वयं स्वीकार कर रहा है ' इस कथन के पीछे कोई प्रमाण नहीं है। जब प्रमाण ही शून्य है तब उठा कल्पना को इतिहास के कलेवर में रखने की कोनसी विवशता या आवश्यकता थी??

धुनिया रुई घुनंने के लिए रुई पर नहीं तांत पर प्रहार करता है, ठीक यही नीती अंग्रेज लेखकों ने अपनाइ। स्मिथ और उसकी चोकड़ी का निशाना कितना सही था? स्मिथ के निराधार लेख प्रकाशित होते ही राजपूतों को गुजर मानने का प्रवाह इतने वेग से चला कि कई विद्वानों ने चावड़ा , प्रतिहार , परमार , चौहान , तंवर , सोलंकी , राठौड़ , गहरवार आदि आदि को गुजर वंशी बतलाने के लिए कई लेख लिख डाले।
इतिहास की सीमा से परे इस कल्पना ने गूजरों के साथ निम्न जातियों में दूषित भावना भरने की कोशिश की गई जिससे जातीय एकता भंग होने के साथ भारतीय वर्ण व्यवस्था में संदेह और कटुता पैदा हुआ जिससे बंधुत्व भावना गला घोट दिया गया और यही अंग्रेज चाहते थे।

इसी समय अंतराल में भारत वर्ष के तमाम राजवंशों से संभंधित अनेकों तथ्यपूर्ण शिलालेख , ताम्र शाशनपत्र , प्राचीन मुद्राएं और प्राचीन महाकाव्य प्रकाश में आते रहे परन्तु इन साम्राज्य वादी लेखकों ने इस सामग्री की निरंतर अवहेलना की और उनकी परिपाटी पर चलने वाले भारतीय प्रतिग्रही विद्वानों की जड़ता भंग नहीं हुई और वे भी भारतीय इतिहासिक सामग्री से मूहँ मोड़ते हुए अंग्रेजी आकाओं द्वारा शोध के नाम पर प्रस्तुत कूड़ा करकट से अपनी सम्बद्धता प्रदर्शित करते रहे।
यह कितने दुर्भाग्य की बात है बॉम्बे गजट के लिए गुजरात का प्राचीन इतिहास लिखने वाला देशी विद्वान पंडत डॉक्टर भगवानलाल इंद्रजी की धारणा है की गुजर कुषाणों के साथ आये परंतु सिद्ध करने के लिए उसके पास कोई प्रमाण नहीं है। इनका यह कहना है की गुप्तवंशियों के समय इन्हें राजपुताना, गुजरात और मालवा में जागीर मिली हो परंतु इसके लिए भी उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया। अगर कोई प्रमाण होता तो ढेरों गुप्त अभिलेखों और भड़ौच के गूजरों के अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं।


===गुज्जरों की हस्याप्तक जॉर्जियन उतपत्ति===

जॉर्जियन गणितज्ञ डा जी चोगोसोविलि और भारतीय भू विज्ञानिक प्रॉ खटाना ने तो 80 के दशक में फेकने की सारी हदें फेंक डाली और गुर्जरों को जॉर्जिया से मिलते जुलते जाती नाम के बेस पर जॉर्जियन ही बता डाला ( भाई शक्ल और सूरत तो देख ली होती कम से कम)। गौर तलब बात यह है की दोनों ही महाशय इतिहासकार नहीं थे परंतु शब्द से शब्द जोड़ कर नई बखर रच डाली। इनके अनुसार गुर्जर जॉर्जिया के जॉर्जत्ति नदी के पास से भारत में सदियों विस्थापित हो सकते है। इन्होने हर उस चीज जिसके नाम के साथ गू शब्द जुड़ा या सम्बन्ध रखता हो को गूजरों से जोड़ कर इतिहास रचने की कोशिश की। हा हा हा परंतु ये दोनों भी अंत में खुद ही लिखते है गूजरों का जॉर्जिया से संभंद प्रमाणित नहीं किया जा सकता पर ये संभावित हो सकता है। जूठ फैलने की हद्द तो हम उसी दिन मान गए जब कई गुज्जरों को अपनी गाड़ियों के पीछे जॉर्जियन लिखवाते देखा। हा हा हा हद्द है।

तो मित्रों प्रतिहारों उतपत्ति के सारे भ्रमों को तोड़ते हुए इस लेख के पहले भाग में हमने यह बताने की कोशिश की कैसे अंग्रेजो ने इतिहास के जरिये भारतीय समाज के अभिन्न अंग क्षत्रियों को विदेशी बता कर उनके और दूसरी जातियों के बीच अविश्वास पैदा करने और दरार पैदा करने की कोशिश की जिससे यह समाज बंटे। बड़े दुर्भाग्य की बात है की अपने जिस इतिहास को वो खुद ही अप्रमाणित कह कर गए है उसका प्रचलन भारतीय समाज को तोड़ने के लिए आज भी किया जा रहा है और राजपूतों को बदनाम किया जा रहा है।
इन्ही कुछ मूर्ख इतिहासकारों का फायदा आज की गुजर जाती के कुछ मूर्ख लोग उठा रहे है और अपने ही समाज को भ्रमित कर रहें है जबकि इनके खुद का इतिहास ही इतना विरोधभासी है और अप्रमाणित है। अपने पूर्वजों का ज्ञान नहीं तो देश के क्षत्रियों को ही अपने बाप दादा साबित करने की कोशिश कर रहें है ताकि पैसे के साथ साथ सम्मान भी मिले।

जबकि डा सी वि वैद्य , दशरथ शर्मा , गौरी शंकर ओझा , बी न मिश्रा बिन्दयराज अदि जैसे न कितने भारतीय इतिहासकार राजपूतों को भारतीय क्षत्रिय साबित कर चुके है सभी प्रमाणों के साथ और विदेशी उत्पीति की बखर को सरा सर नकार चुकें हैं।

इस श्रृंख्ला के अगले भाग में हम आपको वे सारे प्रमाण देंगे जिनसे साफ़ साफ़ पता चलता है प्रतिहारों के शिलालेखों में लिखे गुर्जरा शब्द का अर्थ स्थान सूचक था जिसे जबरदस्ती गुजर जाती बनाने की कोशिश की गयी।



दरहसल नए शोध से पता चलता है की 12वीं सदी से पहले गुर्जर नाम की कोई जाती थी ही नहीं । गुर्जरा देस से जिस भी जाती के लोग माइग्रेट करके दुसरे राज्यों में जा बसे वह गुर्जर कहलाये जो की आज भी कई जातियों जाती प्रमाण पत्र इस बात के गवाह है। महाराष्ट्र के रेवे और डोरे गुर्जर जाती के कुर्मी और गिरे हुए राजपूत वंश से हैं। सौराष्ट्र और गुजरात के गुर्जर ब्राह्मण , गुर्जर मिस्त्री , गुर्जर वैश्य , गुर्जर क्षत्रिय भी इसी बात के उद्धाहरण हैं। यह गुर्जर (गुर (शत्रु) + जर (नष्ट) करने वाला) गायें भैंस चराने वाले गौ + चर = गौचर / गुज्जर से भिन्न भी हो सकते हैं। यह मुमकिन है के इन दोनों जातियों के मिलते जुलते नाम के कारन कई इतिहासकार दोखा खा गए।

साथ ही साथ डा शांता रानी शर्मा के नए शोध MYTH OF GUJJAR ORIGIN OF PRATIHAR और डॉ ऐरावत सिंह के भी नए शोध THE COLONIAL MYTH OF GURJARA ORIGIN OF PRATIHARAS के बारे में भी बताएँगे जिसमे साफ साफ़ प्रतिहारों की गुज्जर उतपत्ति कि सभी थेओरी का तर्क पूर्ण खण्डन किया गया है। सभी नए शोध उन सभी के मूह पर तमाचा है जो प्रतिहारों को गुज्जर बनाने की कोशिशों में जूटे हुए है और विकिपीडिया जैसी तुच्छ साईट का हवाला देते हैं।


Comments

Popular posts from this blog

भोजनान्ते विषम वारि

राजपूत वंशावली

क्षत्रिय राजपूत राजाओं की वंशावली